हरियाणा का इतिहास

हरियाणा अब पंजाब का एक हिस्सा नहीं है पर यह एक लंबे समय तक ब्रिटिश भारत में पंजाब प्रान्त का एक भाग रहा है और इसके इतिहास में इसकी एक महत्वपूर्ण भूमिका है। हरियाणा के बानावाली और राखीगढ़ी, जो अब हिसार में हैं, सिंधु घाटी सभ्यता का हिस्सा रहे हैं, जो कि 5000 साल से भी पुराने हैं।

सिंधु घाटी जितनी पुरानी कई सभ्यताओं के अवशेष सरस्वती नदी के किनारे पाए गए हैं। जिनमे नौरंगाबाद और मिट्टाथल भिवानी में, कुणाल, फतेहाबाद मे, अग्रोहा और राखीगढी़ हिसार में, रूखी रोहतक में और बनवाली सिरसा जिले में प्रमुख है। प्राचीन वैदिक सभ्यता भी सरस्वती नदी के तट के आस पास फली फूली। ऋग्वेद के मंत्रों की रचना भी यहीं हुई है।

कुछ प्राचीन हिंदू ग्रंथों के अनुसार, कुरुक्षेत्र की सीमायें, मोटे तौर पर हरियाणा राज्य की सीमायें हैं। तैत्रीय अरण्यक 5.1.1 के अनुसार, कुरुक्षेत्र क्षेत्र, तुर्घना (श्रुघना / सुघ सरहिन्द, पंजाब में) के दक्षिण में, खांडव (दिल्ली और मेवात क्षेत्र) के उत्तर में, मारू (रेगिस्तान) के पूर्व में और पारिन के पश्चिम में है। भारत के महाकाव्य महाभारतमे हरियाणा का उल्लेख बहुधान्यकऔर बहुधनके रूप में किया गया है। महाभारत में वर्णित हरियाणा के कुछ स्थान आज के आधुनिक शहरों जैसे, प्रिथुदक (पेहोवा), तिलप्रस्थ (तिल्पुट), पानप्रस्थ (पानीपत) और सोनप्रस्थ (सोनीपत) में विकसित हो गये हैं। गुड़गाँव का अर्थ गुरु के ग्राम यानि गुरु द्रोणाचार्य के गाँव से है। कौरवों और पांडवों के बीच हुआ महाभारत का प्रसिद्ध युद्ध कुरुक्षेत्र नगर के निकट हुआ था। कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश यहीं पर दिया था। इसके बाद अठारह दिन तक हस्तिनापुर के सिंहासन का अधिकारी तय करने के लिये कुरुक्षेत्र के मैदानी इलाकों में पूरे भारत से आयी सेनाओं के मध्य भीषण संघर्ष हुआ। जनश्रुति के अनुसार महाराजा अग्रसेन् ने अग्रोहा जो आज के हिसार के निकट स्थित है, में एक व्यापारियों के समृद्ध नगर की स्थापना की थी। किवंदती है कि जो भी व्यक्ति यहाँ बसना चाहता था उसे एक ईंट और रुपया शहर के सभी एक लाख नागरिकों द्वारा दिया जाता था, इससे उस व्यक्ति के पास घर बनाने के लिये पर्याप्त ईंटें और व्यापार शुरू करने के लिए पर्याप्त धन होता था।

यह राज्य आदिकाल से ही भारतीय संस्कृति और सभ्यता की धुरी रहा है। मनु के अनुसार इस प्रदेश का अस्तित्व देवताओं से हुआ था, इसलिए इसे ‘ब्रह्मवर्त’ का नाम दिया गया था।

हरियाणा के विषय में वैदिक साहित्य में अनेक उल्लेख मिलते हैं। इस प्रदेश में की गई खुदाईयों से यह ज्ञात होता है कि सिंधु घाटी सभ्यता और मोहनजोदड़ों संस्कृति का विकास यहीं पर हुआ था। शास्त्र-वेत्तओं, पुराण-रचयिताओं एवं विचारकों ने लम्बे समय तक इस ब्रह्मर्षि प्रदेश की मनोरम गोद में बैठकर ज्ञान का प्रसार अनेक धर्म-ग्रन्थ लिखकर किया। उन्होने सदा मां सरस्वती और पावन ब्रह्मवर्त का गुणगान अपनी रचनाओं में किया।

इस राज्य को ब्रह्मवर्त तथा ब्रह्मर्षि प्रदेश के अतिरिक्त ‘ ब्रह्म की उत्तरवेदी’ के नाम से भी पुकारा गया। इस राज्य को आदि सृष्टि का जन्म-स्थान भी माना जाता है। यह भी मान्यता है कि मानव जाति की उत्पत्ति जिन वैवस्तु मनु से हुई, वे इसी प्रदेश के राजा थे। ष्अवन्ति सुन्दरी कथाष् में इन्हें स्थाण्वीश्वर निवासी कहा गया है। पुरातत्वेत्ताओं के अनुसार आद्यैतिहासिक कालीन-प्राग्हड़प्पा, हड़प्पा, परवर्ती हड़प्पा आदि अनेक संस्कृतियों के अनेक प्रमाण हरियाणा के वणावली, सीसवाल, कुणाल, मिर्जापुर, दौलतपुर और भगवानपुरा आदि स्थानों के उत्खननों से प्राप्त हुए हैं।
भरतवंशी सुदास ने इस प्रदेश से ही अपना विजय अभियान प्रारम्भ किया और आर्यो की शक्ति को संगठित किया। यही भरतवंशी आर्य देखते-देखते सुदूर पूर्व और दक्षिण में अपनी शक्ति को बढ़ाते गये। उन्ही वीर भरतवंशियों के नाम पर ही तो आगे चल कर पूरे राष्ट्र का नाम ‘भरत’ पड़ा।
महाभारत-काल से शताब्दियों पर्व आर्यवंशी कुरूओं ने यही पर कृषि-युग का प्रारम्भ किया। पौराणिक कथाओं के अनुसार उन्होने आदिरूपा माँ सरस्वती के 48 कोस के उपजाऊ प्रदेश को पहले-पहल कृषि योग्य बनाया। इसलिए तो उस 48 कोस की कृषि-योग्य धरती को कुरूओं के नाम पर कुरूक्षेत्र कहा गया जो कि आज तक भी भारतीय संस्कृति का पवित्र प्रदेश माना जाता है।
बहुत बाद तक सरस्वती और गंगा के बीच बहुत बड़े भू-भाग को ‘कुरू प्रदेश’ के नाम से जाना जाता रहा। महाभारत का विश्व-प्रसिद्व युद्व कुरूक्षेत्र में लड़ा गया। इसी युद्ध के शंखनादों के स्वरों के बीच से एक अद्भुत स्वर उभरा। वह स्वर था युगपुरूष भगवान कृष्ण का, जिन्होने गीता का उपदेश यहीं पर दिया था, गीता जो भारतीय संस्कृति के बीच मंत्र के रूप में सदा-सदा के लिए अमर हो गई।
महाभारत-काल के बाद एक अंधा युग शुरू हुआ जिसके ऐतिहासिक यथार्थ का ओर-छोर नहीं मिलता। परन्तु इस क्षेत्र के आर्यकुल अपनी आर्य परम्पराओं को अक्षुण्ण रखते हुए बाहर के आक्रांताओं से टकराते रहे। पुरा कुरू-प्रदेश गणों और जनपदों में बंटा हुआ था। कोई राजा नहीं होता था। गणाधिपति का चुनाव बहुमत से होता था। उसे गणपति की उपाधि दी जाती थी, सेनापति का चुनाव हुआ करता था, जिसे ‘इन्दु’ कहा जाता था। कालांतर तक यह राज-व्यवस्था चलती रही। इन गणों और जनपदों ने सदैव तलवार के बल पर अपने गौरव को बनाए रखा।
आर्यकाल से ही यहाँ के जनमानव ने गण-परम्परा को बेहद प्यार किया था। गांव के एक समूल को वे जनपद कहते थै। जनपद की शासन-व्यवस्था ग्रामों से चुने गये प्रतिनिधि संभालते थे। इसी प्रकार कई जनपद मिलकर अपना एक ‘गण’ स्थापित करते थे। ‘गण’ एक सुव्यवस्थित राजनैतिक ईकाई का रूप लेता था। ‘गणसभा’ की स्थापना जनपदों द्वारा भेजे गये सदस्यों से सम्पन्न होती थी।
यह भी देखा गया है कि इस तरह के कई ‘गण’ मिलकर अपना एक संघ बनाया करते थे, जिसे गण-संघ के रूप में जाना जाता था। यौधेय काल में इसी तरह कई गणराज्यों के संगठन से एक विशाल ‘गण-संघ’ बनाया गया था जो शतुद्रु से लेकर गंगा तक के भूभाग पर राज्य करता था।
राज्य-प्रबन्ध की यह व्यवस्था केवल मात्र राजनीतिक नहीं थी, सामाजिक जीवन में भी इस व्यवस्थाने महत्वपूर्ण स्थान ले लिया था। यही कारण था कि पूरे देश में जब गणराज्यों की यह परम्परा साम्राज्यवादी शक्तियों के दबाव से समाप्त हो गई तब भी हरियाणा प्रदेश के जनमानस ने इसे सहेजे रखा।
इस प्रदेश की महानगरी दिल्ली ने अनेक साम्राज्यों के उत्थान-पतन देखे परन्तु यहां के जन-जीवन में उन सब राजनैतिक परिवर्तनों का बहुत अधिक प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि अपनी आन्तरिक-सामाजिक व्यवस्था में कभी भी इन लोगों ने बाह्म हस्तक्षेप सहन नहीं किया।
इनकी गण-परम्परा को शासकों ने भी सदा मान्यता दी। हर्षकाल से लेकर मुगल-काल के अंत तक हरियाणा की सर्वोच्च पंचायत की शासन की ओर से महत्व दिया जाता रहा। सर्वशाप पंचायत के पुराने दस्तावेजों से पता चलता है कि मुगल शासकों की ओर सेे सर्वखाप पंचायत के प्रमुख को ‘वजीर’ की पदवी दी जाती थी और पंचायत के फैसलों को पूरी मान्यता मिलती थी। मुगल-काल में जनपदों का स्थान खापों ने और गणों का स्थान सर्वखाप पंचायतों ने ले लिया था। सर्वखाप पंचायत की सत्ता को सतलुज से गंगा तक मान्यता प्राप्त रही है।
इस प्रदेश में रोमन और ग्रीक गण-परम्पराओं से भी कहीं अधिक सुव्यवस्थित गण-व्यवस्था रही है।
मध्य युग में उत्तर-पख्चिम से आक्रांताओं का तांता-सा बंध गया। आक्रांता सिंधु-प्रदेश में, बिना किसी अवरोध के घुस आते थे परन्तु जब वे कुरू-प्रदेश के योद्धाओं से टकराते तो उनका सामना नहीं कर पाते थे।
बौद्ध-काल के प्रारम्भ में भी इस प्रदेश में यौधेयगण के शक्तिशाली संगठन कापता चलता है। सिकन्दर ने व्यास नदी को पार करने का साहस इसीलिए तो नहीं किया था कि व्यास के इस पार मगधों औ यौधयों की शक्ति से वह अच्छी तरह से परिचित हो चुका था। वह जानता था कि यौधयगण के विकट शूरवीरों से मुकाबला करना आसान नहीं है। बाहर की शक्तियों से टकराने वाले इन योद्धाओं ने भारत के सिंहद्वार के पहरेदारों के रूप में पीढ़ियों तक पहरा दिया। इसलिए तो सतलुज से इस पार को ही भारत का सिंहद्वार कहा जाने लगा।
यौधेय-काल में इस उपजाऊ हरी-भरी धरती को बहुधान्यक-प्रदेश की संज्ञा भी दी गई।
प्राचीन हरियाणा की सबल गण-परम्परा के फलस्वरूप ही यहां के लोग सदा जनवादी बने रहे और कालांतर में उन्होने हर उस साम्राज्यवादी शक्ति से टक्कर ली जिन्होने भी उनकी जनवादी व्यवस्था में हस्तक्षेव किया। सन् 1857 का जन-विद्रोह भी उसी आस्था का प्रतीक था।
उत्तर भारत की बौद्धकालीन राजनैतिक व्यवस्था पर जो नई खोजें हुईं उनकी वजह से इतिहास का एक अंधकारमय अध्याय प्रकाश में आया है। बौद्धकाल के आरम्भ में सोलह महाजनपदों की चर्चा बौद्ध साहित्य में बिस्तारपूर्वक हुई है। इनमें कुरू,पांचाल, सूरसेन, अवंती, वज्जी, कौशल, अंग, मल्ल, चैत्य, वत्स, मगध, मत्स्य, अस्सक, गंधार, कम्बोज और काशी का उल्लेख हुआ है। आधुनिक हरियाणा के भाग उस समय कुरू और पांचाल महाजनपदों के भाग थे।
प्राचीन सिक्कों, मोहरों, ठप्पों, मुद्राओं, शिलालेखों तथा अन्य ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर पता चलता है कि योग्य शक्ति का उदय ईसा पूर्व की चौथी शताब्दी में हुआ और उसने पूरे एक हजार वर्ष तक इस भू-भाग पर अपना आधिपत्य बनाये रखा।
यौधेयों के सिक्के सतलुज और यमुना के पूरे भू-भाग के अनेकों स्थानों से प्राप्त हुए हैं। आचार्य भगवानदेव ने रोहतक के खोखरा कोट तथा कई अन्य स्थानों से यौधेय काल की बहुमूल्य सामग्री जुटाई है।
यौधेय गणराज्य ने कालान्तर में एक शक्तिशाली गण-संघ का रूप ले लिया था, जिसके अन्तर्गत अनेक गणों की शक्ति जुड़ गई थी। यौधेय गणसंघ के मुख्य गण थै- यौधेय, आर्जुनायन मालव, अग्रेय तथा भद्र। आर्जुनायन गणराज्य आधुनिक भरतपुर और अलवर क्षेत्रों पर आधारित था तथा मालव गणराज्य पहले पंजाब के आधुनिक मालवा क्षेत्र में स्थित था परन्तु इण्डोग्रीक आक्रमणों के कारण मालव राजपूताना क्षेत्र चले गये। जयपुर क्षेत्र में मालवनगर नामक प्राचीन स्थानउनकी राजधानी थी। अग्रेय गण की राजधानी आज का अग्रोहा था। एक मत के अनुसार यहां के गणपति एवं गणाध्यक्ष को ‘अग्रसेन’ की उपधि से अलंकृत किया जाता था। अग्रेय अपनी समाजवादी व्यवस्था के लिए प्रसिद्ध थे। अग्रेय शब्द कालांतर में अग्रवाल हो गया लगता है। जहाँ प्राचीन-काल में अग्रोहा अपनी समृद्धि और विकास के लिए प्रसिद्ध था वहाँ आज भी अग्रवाल जाति अपना विकास अग्रेहा से मानती है।
मौर्यकाल में भी यौधेय पूरी तरह शक्ति सम्पन्न रहे और उनका बहुधान्यक प्रदेश अपनी समुद्वि के लिए भारत में प्रसिद्ध रहा जबकि देश के अन्य गण लगभग ध्वस्त हो चुके थे ।
गुप्तकाल में आकर यौधयों का गुप्त सम्राटों से संघर्ष चला। पहले के गुप्त शासकों ने यौधयों को केवल उनकी प्रभुसत्ता स्वीकारने तक को राजी करने का प्रयास किया किन्तु यौधये जिनहे अपने गणराज्य पर गर्व था किसी भी रूप में साम्राज्यवादी प्रभुत्व स्वीकारने को तैयार नहीं हुए। परन्तु यह स्थिति चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में बदल गई। सम्राट विक्रमादित्य ने यौधय को मटियामेट करने का संकल्प किया और एक धारणा के अनुसार दोनों शक्तियों में लगभग चैथाई शताब्दी तक घोर संघर्ष चला और अंत में उस विशाल सामा्रज्यवादी शक्ति ने देश की सम्भवतः अन्तिम गण-शक्ति को ध्वस्त कर दिया।
यौधेय काल में ये प्रदेश ‘बहुधान्यक’ प्रदेश के नाम से जाना जाता था। मूर्तिकला, हस्तकला और ललित कलाओं के लिए यौधेय पूरे प्रदेश में प्रसिद्ध थे। रोहतक के ढ़ोलवादक धुर उज्जैन तक पहुँचकर प्रसिद्ध प्राप्त करते थे। मल्लयुद्ध और युद्ध-कौशल में उनका जवाब नहीं था। वे जहाँ विकट यौद्धा थे वहाँ जीवन वाले किसान भी थे। यह गर्व की बात है कि पूरे एक हजार वर्ष तक इस गणराज्य ने भारत के इतिहास में अपूर्व प्रसिद्ध प्राप्त की और अपने प्रदेश को गणतन्त्रात्मक राजनैतिक व्यवस्था के अधीन चरम विकास तक पहुंचाया।
हर्षकाल में भी यह पूरा प्रदेश अनेक जनपदों में बंटा था। इस काल में जनपदों और गणों की यह परम्परा यहां राजनैतिक व्यवस्था का आधार बनी रही । राजा हर्षबर्धन के पूर्वजों ने श्रीकंठ जनपद से ही अपनी शक्ति संगठित की थी। हर्ष के पिता प्रभाकर वर्धन ने स्थाण्वीश्वर (थानेश्वर) में बैठकर ही एक शक्तिशाली साम्राज्य की शक्ति को बढ़ाया था। उन्होंने हूणों की बढ़ती हुई शक्ति पर जोरदार प्रहार करके उन्हें भारत से भगा दिया। गुप्तों और गांधारों की शक्ति को नष्ट करके वर्द्धनों ने उत्तर भारत के सभी भू-भागों पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया। वर्द्धन वंश का सबसे प्रतापी शासक हर्षवर्धन था, जिन्होने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। हरियाणा प्रदेश का वह एक गौरव युग था।हूण के शासन के पश्चात हर्षवर्धन द्वारा 7वीं शताब्दी में स्थापित राज्य की राजधानी कुरुक्षेत्र के पास थानेसर में बसायी। उसकी मौत के बाद प्रतिहार ने वहां शासन करना आरंभ कर दिया और अपनी राजधानी कन्नौज बना ली। यह स्थान दिल्ली के शासक के लिये महत्वपूर्ण था। पृथ्वीराज चौहान ने १२वीं शताब्दी में अपना किला हाँसी और तरावड़ी (पुराना नाम तराईन) में स्थापित कर लिया।मुहम्मद गौरी ने दुसरी तराईन युध में इस पर कब्जा कर लिया। उसके पश्चात दिल्ली सल्तनत ने कई सदी तक यहाँ शासन किया।
चीनी भिक्षु हृेनसांग ने हर्ष की राजधानी स्थाण्वीश्वर (थानेश्वर) के वैभव और समृद्धि का सुन्दर चित्रण किया है। बाणभट्ट ने अपने ‘हर्षचरित’ नामक ग्रन्थ में उस समय के हरियाणा प्रदेश के जन-जीवन और सांस्कृतिक-परम्पराओं का व्यापक वर्णन किया है।
हर्षकाल में जनपदों का स्वरूप ज्यों का त्यों बना रहा। सम्राट् ने कभी यहाँ की आन्तरिक व्यवस्था में हस्तक्षप नहीं किया। गाँव के एक समूह को प्रशासन की सारी व्यवस्था की जिम्मेदारी ग्रामीण मुखियाओं के ऊपर रही।
सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात् यहां का जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया। लगातार बाहरी आक्रमण होते रहे। परन्तु यहां के लोगों ने अपनी शक्ति से आन्तरिक सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखा।
1014 ई. में महमूद गजनवी ने थानेश्वर पर आक्रमण करके चक्रतीर्थ स्वामिन की मूर्ति तथा अनेक मन्दिरों को नष्ट-भ्रष्ट किया। हरियाणा के तोमर शासक ने गजनवियों को भगाने के लिए अन्य भारतीय शासकों से सहायता मांगी किन्तु किसी ने भी उसकी सहायता नहीं की। अतः ग्यारहवीं शताब्दी में हरियाणा के तोमर शासकां को गजनवी वंश, काश्मीर के लोहार शासक तथा राजस्थान के चैहार (चाहमान) शासकों के घोर विरोध का सामना करना पड़ा। तोमर शासकों के शासनकाल में हरियाणा में व्यापार, कला तथा संस्कृति ने बहुत उन्नति की जिसकी जानकारी हमें दसवी शताब्दी में लिखित सोमदेव के ग्रन्थ ‘यशस्तिलक चम्पू’ से मिलती है।
बारहवीं शताब्दी में चैहान शासक अर्णोराजा (1331-51) ने हरियाणा प्रदेश पर आक्रमण कर तोमरों को पराजित कर दिया। दिल्ली तथा हरियाणा पर 1156 में बीसलदेव या विग्रहराज षष्ठ ने विजय प्राप्त कर तोमरों से दिल्ली और हांसी हस्तगत कर लियेे। इस विजय ने चैहानों को भारत की सर्वोच्च शक्ति बना दिया क्योंकि तोमरों के अधीन दिल्ली व हरियाणा पर अधिकार अखिल भारतीय प्रतिष्ठा का सूचक बन गया था।
प्रकार बाहरवीं शताब्दी में हरियाणा पर चैहानों का प्रभुत्व स्थापित हो गया। उस समय दिल्ली राजनीतिक क्रिया-कलापों का केन्द्र था। दिल्ली पर भी चैहानों का प्रभुत्व स्थापित हो गया था। 1191 में दिल्ली के चैहान शासक पृृथ्वीराज चैहान ने मुहम्मद गोरी को परास्त किया था, किन्तु 1192 में वह मुहम्मद गोरी के हाथों पराजित होकर मारा गया। इस प्रकार दिल्ली के साथ-साथ हरियाणा प्रदेश पर भी मुस्लिम आक्रमणकारियों का अधिकार स्थापित हो गया।
सन् 1206 में मुहम्मद गोरी की म ृत्यु के बाद उसके क गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने भारत में गुलाम वंश की नींव डाली। 1265 में गुलाम वंश के शासक बलबन ने यहां शक्तिशाली मेंवों की शक्ति को कुचलने का पूर्ण प्रयास किया। सन् 1290 में गुलामवंश के पतन के पश्चात् खिलज वंश का उदय हुआ। अलाउद्दीन जो कि सबसे प्रसिद्ध खिलजी शासक था, तुगलक वंश का प्रारम्भ हुआ। फिरोज तुगलक नामक तुगलक शासक ने हिसार जिले में फतेहाबाद नामक एक नगर अपने पुत्र फतेह खाँ के नाम पर बसाया। उसने सिंचाई के लिए नहरें बनवाईं।
1398 में तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया। तैमूर विजयी होकर घग्घर नदी के साथ-साथ हरियाणा में प्रविष्ट हुआ। तैमूर ने आने की सूचना पाते ही सिरसा के हिन्दु अपने घरों को छोड़कर भाग गये। यहां से बहुत सी सम्पत्ति तैमूर के हाथ लगी। सिरसा के पश्चात्् तैमूर ने फतेहाबाद पर आक्रमण किया तथा वहाँ तैमूर के सैनिकों ने बड़ी बेरहमी से लोगों को कत्ल किया। हिसार, करनाल, कैथल, असन्ध, तुगलकपुर तथा सालवान आदि को नष्ट-भ्रष्ट करने के बाद तैमूर पानीपत पहुँचा जहाँ पर तैमूर ने खून लूट-पाल की।
तैमूर के भारत से जाने के पश्चात् फैली अराजकता का हरियाणावासियों ने पूरा लाभ उठाया। तैमूर द्वारा बनाये गये सैय्यदों में सामा्रज्य को पुनर्जीवित करने की न तो इच्छा थी और न ही उनके इतनी योग्यता ही थी। सैय्यदों के पश्चात् लोदी वंश का शासन प्रारम्भ हुआ। 1517 ई. में सिकन्दर लोदी के पश्चात् इब्राहिम लोदी दिल्ली की गद्दी पर बैठा।
तत्कालीन समय में हरियाणा में हसन खाँ मेवाती, जलाल खाँ तथा मोहन सिंह मंढार की रिसायतंें सर्वाधिक प्रसिद्ध थींै। इनमें भी हसन खाँ मेवाती सबसे शक्तिशाली शासक था। उसके राज्य में गुड़गांव जिले का मेवात क्षेत्र, महेन्द्रगढ़ का नारनौल, कानोंड का कुछ क्षेत्र तथा राजस्थान में अलवर के आसपास का बहुत बड़ा भू-भाग शामिल था। उसके पास 10000 मेवातियों की सेना थी। देहली के शासक उसकी वीरता से प्रभावित थे। मेवाड़ के महाराणा संग्राम सिंह ने उसकी अभिन्न मित्रता थी। 1526-27 में जब बाबर ने भारत पर आक्रमण किया तब हसन खाँ की खानवा के युद्ध में मृत्यु हो गई। जलाल खां तावडू के परगने का शासक था और जाति से खानजादा था। वह हसन खाँ मेवाती को अपना बड़ा भाई मानता था। उसके पास भी मेवों की एक बड़ी सेना थी। इसलिए शाही सेना से उसकी टक्कर होती रहती थी। जलाल खाँ बड़ा कला-प्रेमी था। उसने सोहना व तावडू में कई इमारतों का निर्माण करवाया। जलाल खाँ का अन्त गुमनामी की अवस्था में हुआ। मोहन सिंह मंढ़ार की रियासत कैथल के परगने मंढ़ार में थी। वह बड़ा वीर और लोकप्रिय था। इस वीर राजपूत ने लम्बे समय तक बाबर से मुकाबला किया।
प्रथम मुगल शासक बाबर ने भारत पर कई बार आक्रमण किये क्योंकि तत्कालीन समय में राजनीतिक दृष्टि से भारत की स्थिति बड़ी दयनीय थी। सम्पूर्ण देश छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था जो आपस में लड़ते रहते थे। वह बिना किसी विरोध के हरियाणा की ऊपरी सीमाओं तक बढ़ आया। यहाँ के पानीपत नामक स्थान पर बाबर और दिल्ली के शासक इब्राहिम लोदी का ऐतिहासिक युद्ध हुआ जिसमें इब्राहिम लोदी की पराजय हुई पानीपत की विजय के पश्चात् बाबर ने बड़ी सरलता से दिल्ली पर अधिकार कर लिया। प्रशासन चलाने के लिए बाबन ने हरियाणा को चार भागों में बांट दिया। बाबर की मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारी (पुत्र) हुमायूँ के शासन काल में यहां का प्रशासन यथावत बना रहा। 1504 में इस प्रदेश को सरदार शेरशाह सूरी ने हुमायूं से छीन लिया। शेरशाह ने हरियाणा की शासन-व्यवस्था में विशेष-रूचि ली और उसने हरियाणा केकिसानों की स्थिति को उत्तम बनाने के लिए अनेक सुधार किये। शेरशाह की मृत्यु के पश्चात् हुमायंू ने 1555 में अपने खोये हुये राज्य पर पुनः अधिकार कर लिया। हुमायंू के पश्चात् उसका पुत्र अकबर गद्दी पर बैठा उस समय रिवाड़ी में हेमचन्द्र (हेमू) का शासन था, जो कि अकबर का सबसे प्रबल शत्रु था। हेमू ने 22 लड़ाइयां लड़ी थीं और उनमें से एक में भी वह पराजित नहीं हुआ था।
हेमू ने शाही छत्र के नीचे बैठ कर अपने आपको दिल्ली का शासक घोषित कर दिया था। जिसके परिणामस्वरूप अकबर और हेमू के बीच 1556 में पानीपत का द्वितीय युद्ध हुआ जिसमें हेमू की पराजय हुई। अकबर ने शासन को सुव्यवस्थित ढंग से चलाने के लिए अपने राज्य को 15 सूबों में बांट दिया।
मुगल शासक शाहजहाँ ने अपने शासनकाल के दौरान हरियाणा की शासन-व्यवस्था में परिवर्तन किये। मुगल शासक औरंगजेब ने अपने शासनकाल में हिन्दुओं पर भीषण अत्याचार किये। उसने हरियाणा की जनता पर कमरतोड़ कर लगा दिये। परिणामस्वरूप उसे नारनौल के सतनामियों के प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा। सतनामियों के संघर्ष के बाद में भीषण रूप धारण कर लिया तथा 3 मार्च, 1707 में औरंगजेन की मृत्यु के पश्चात् हरियाणा से मुगलों का अधिपत्य धीरे-धीरे समाप्त हो गया।
सन् 1750 में मराठों ने दिल्ली पर आक्रमण किया। परन्तु उन्हें सफलता तीन वर्ष बाद मल्हारराव होल्कर के पुत्र खाण्डेराव के दिल्ली आक्रमण से मिली। मुगल समा्रट्अहमदशाह और उसका प्रधानमंत्री इन्तजाम-उ-दौला उसका विरोध करने की क्षमता नहीं रखतें थें। 1754 में आलमगीर (मराठों द्वारा बनाया गया शासक) ने मराठों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए उन्हे हरियाणा का पवित्र स्थान कुरूक्षेत्र प्रदान किया। 1756-57 तक मराठे हरियाणा पर पूर्ण रूप से छाये रहे।
हरियाणा पर अधिकार करने के उपरान्त मराठे और आगे बढ़े और उन्होंने पंजाब पर भी अधिकार कर लिया। मराठों द्वारा पंजाब पर कब्जा करने के परिणामस्वरूप मराठों और अहमदशाह अब्दाली के बीच पानीपत (हरियाणा) का तीसरा युद्ध हुआ । इस युद्ध में अब्दाली की विजय हुई परन्तु वह उस विजय का लाभ नहीं उठा सका क्योंकि उसकी अनुपस्थिति में उसके अपने देश में विद्रोह हो गया। अब्दाली ने अपने देश लौटते समय हरियाणा का उत्तरी भाग (अम्बाला,जींद, कुरूक्षेत्र, करनाल जिले को) सरहिन्द के गर्वनर जैनखां के दलों ने मिलकर सरहिन्द के दुर्रानी गर्वनर गेन खां, पर आक्रमण कर दिया। दुर्रानी गर्वनर ने सिखों का मुकाबला किया परन्तु अन्त में वह सिखों के हाथों पराजित हुआ और मारा गया। जैन खां से सिखों को एक बड़ा क्षेत्र प्रापत हुआ यह क्षेत्र पूर्व में यमुना नदी से लेकर पश्चिम में बहाबलपुर राज्य तक तथा उत्तर में सतलुज नदी से लेकर दक्षिण में हिसार और रोहतक तक विस्तृत था। इसके बाद भी सिखों ने हरियाणा प्रदेश पर कई बार आक्रमण किये।
1787 में आयरलैण्ड में टिप्परेरी नामक स्थान का निवासी जार्ज टॉमन दिल्ली आया और बेगम समरू की सेना में भर्ती हो गया। सेना में भर्ती होने के बाद धीरे-धीरे तरक्की करते हुए उसने एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना करने का निश्चय किया। हांसी के दुर्ग का टॉमस ने राजधानी बनाया तथा कुछ समय बाद उसने अपने राज्य का विस्तार करना आरम्भ किया। उस समय सिख उसका मुकाबला करने में लगे हुए थे, तभी अवसर देख टॉमस ने जींद पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया। परन्तु सिख सरदार बोगेन ने टॉमस का पीछा करते हुए उसे हांसी में घेर लिया और अन्त में 23 सितम्बर, 1801 में टॉमस ने आत्मसमर्पण कर दिया। 1802 ई. में बहरामपुर नामक स्थान पर टाॅमस की मृत्यु हो गई।
सन् 1708 में लार्ड वेलेजली कम्पनी का गर्वनर जनरल बनकर भारत आया और उसने आते ही अपनी विस्तार-वादी योजना बनाई । 30 सितम्बर, 1803 को सर्जीअर्जन की सन्धि के अनुसार दौलतराव सिन्धिया ने अंग्रेजों को अपनी अधिकृत स्थानों के साथ-साथ हरियाणा को भी प्रदान कर दिया। हरियाणा में गुड़गांव के मेव, अहीर और गूजरों ने, रोहतक के जाटों और रांघड़ों ने, हिसार के विश्नोई और जाटों ने, करनाल व कुरूक्षेत्र के राजपूत, रोड़, सैनी और सिखों ने, ब्रिटिश तथा उनके द्वारा नियुक्त किये गये स्थानीय सरदारों का लम्बे समय तक कड़ा विरोध किया। किन्तु अन्त में 1809-10 में समस्त हरियाणा पर अंग्रेजों का अधिकार स्थापित हो गया।
1857 की जनक्रान्ति में हरियाणा के शूरवीरों ने महत्पूर्ण भाग लिया किन्तु अंग्रजों ने इस क्रांति को बड़ी बर्बतापूर्वक दबा दिया और झज्जर व बहादुरगढ़ के नवाबों, बल्लभगढ़ वे रेवाड़ी के राजा राव तुलाराम के राज्य छीन लिए। फिर ये राज्य या तो ब्रिटिश सामा्रज्य में मिला लिये गये या नाभा, जीद व पटियाला के शासकों को सौंप दिये गये। इसके बाद हरियाणा पंजाब राज्य का एक प्रान्त बना दिया गया।
विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा दिल्ली पर अधिकार के लिए अधिकतर युद्ध हरियाणा की धरती पर ही लड़े गए। तरावड़ी के युद्ध के अतिरिक्त पानीपत के मैदान में भी तीन युद्ध एसे लड़े गए जिन्होंने भारत के इतिहास की दिशा ही बदल दी।

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