किस्सा चन्द्रगुप्त-धर्ममालकी

चन्द्रगुप्त को मनसा सेठ के यह रहते-सहते 12 साल हो गये थे और अब वह 18 साल का हो जाता है। एक दिन की बात है मनसा सेठ ने चन्द्रगुप्त को अपने पास बुलाया और कहा बेटा तुम्हे तो पता हमारा रूई का व्यापार है। अब समय आ गया तुम अपनी जिम्मेवारी संभालो। इस बार तुम रूई का जहाज लेकर सिंगल द्वीप मे जाओ। यह सुन कर चन्द्रगुप्त मनसा सेठ को क्या कहता है-

के सै मेरै गोचरी काम, श्रध्दा ना सै नाटण की,
तूं मेरा बाप धर्म का सै।।टेक।।

बाळक से नै लई थारी आस,
सारी उमर बणकै रहूं थारा दास,
पिता का खास ताराचन्द नाम
निगाह सै ईज्जत डाटण की,
जगत मै मोल शर्म का सै।।

तुम नहीं रीत बड्यां की चुके,
थारे पुन्न-दान करण में रुक्के,
भूखे मंगते करै सै आराम,
नीत रहै अन्न-धन बांटण की,
रौळा थारे भर्म का सै।।

मै थारी सेवा करूगां हमेश,
दिल पै आवै नही कलेश,
जितने थारे उपदेश तमाम,
समय अमृत कर चाटण की,
योहे मार्ग भले कर्म का सै।।

करी हित चित से सेवा शुरू,
भजन तैं पार उतरगे ध्रुव,
मानसिंह गुरू स्वर्ग केसा धाम,
बुद्धि या दुनिया छांटण की,
मेरा कुढा दास नरम का सै।।

चन्द्रगुप्त अपने धर्म पिता मनसा सेठ के आदेशानुसार चलने की तैयारी करके अपनी माता से आज्ञा लेने जाता है तो मनसा सेठ के दो पुत्रो करोड़ी व मरोड़ी और साथ मे दोनो भाभी वहां पर थी। अब जाते वक्त चन्द्रगुप्त क्या कहता है-

चन्द्रगुप्त तेरा याणा, भरकै चाल्या जहाज,
आज कोऐ चींज मंगा मेरी मां।।टेक।।

क्यूँ मुर्झाग्या फूल गुलाबी,
थारे चेहरे की झड़गी आबी,
री भाभी जै कुछ तनै भी मंगाणा,
थारे सिद्ध करद्यूं सब काज,
दाम किमै लेहरी हो तै ल्या।।

बाळक से नै ली थी थारी शरण,
रोज सेवा करूं पूजूं चरण,
आज अपणा परण निभाणा,
राखूंगा कुल की लाज,
चाहे मेरा धड़ पर तै सर जा।।

इब तक मनै आनन्द भोगा,
तनै कर दिया कमाण-खाण जोगा,
होगा सिंगल द्वीप मै जाणा,
सधा सै पहला मौका आज,
मनै प्रदेश जाण का चा।।

गुरू मानसिंह पेड़ आनन्द का,
ख्याल जो कर लिया लख्मीचन्द का,
हो मुशिकल छन्द का गाणा,
जब बाजण लागै साज,
घणखरे रहज्यां सै मुंह बा।।

अब चन्द्रगुप्त की माता ने कहा बेटा मुझे तो कुछ नही चहिये। चन्द्रगुप्त की दोनों भाभी कहती हमे तो सच्चे मोती लाल और जुड़ा चहिये और दोनो बात स्वीकर करके चन्द्रगुप्त सिंगल द्वीप के लिए रवाना हो जाता है। वह यह नही जानता था लाल और जुड़ा बनियों की ब्याह शादी मे छन के वक्त ही मिलते है। चन्द्रगुप्त बाजर में घूमता पर भाभियों द्वारा मंगवाई गयी कोई सी भी चीज बाजार मे नही मिली तो परेशान होकर क्या कहता है-

बित गये दिन दो-चार,
बात का फिकर करै लड़का,
जब सिंगल द्वीप मै पहूंच गया।।टेक।।

ज्यान मेरी फंसगी बुरे कहर मै,
जाणै के लिखदी कर्म लहर मै,
शहर में करता फिरूं व्यवहार,
भेद खोलकै कहूं जड़ का,
रूई मै मनै दूणा नफा रह्या।।

रास्ते लिऐ धर्म डिगरी के,
खरे दाम करे रूई सग्री के,
न्यूं कहै नगरी के नर-नार,
करै ना बोलण धड़का,
यो सै सौदागर कती नया।।

लड़के नै सब दाम सम्भाळे,
कट्ठे कर पेटी मै डाळे,
पिछले करूं हवाळे त्यार,
काल का लिकड़ण दे तड़का,
मनै एक करणा काम ठया।।

एक हफ्ता गया बीत तमाम,
चींज मिली ना लिऐ फिरूं दाम,
श्री लख्मीचन्द हो सै काम नै वार,
मेरै दो चींजा का अड़का,
जाणै कद गुरू मानसिंह करगे दया।।

चन्द्रगुप्त सारे बजार घूम लेता है पर सच्चे मोती लाल और जुड़ा कही पर भी नही मिले। अब चन्द्रगुप्त सोचता अगर खाली हाथ घर गया तो दोनो भाभी ताने देगी। ऐसे तानो से तो मरना ही अच्छा है और क्या सोचता है-

सोचै था मन म्हं, बाकी ना थी तन म्हं,
दो चार दिन म्हं, सिंगल द्वीप में जा लिया।।टेक।।

सेठ ताराचन्द का लाल,
करै भावज के बोळां का ख्याल,
माळ तैं खुब छिके, जिसे कर्म लिखे,
रूई के जहाज बिके, दूणां नफा कमा लिया।।

लेकै लाल और जुडे़ का नाम,
घरक्यां नै याद करै सुबह-श्याम,
करो मेरे राम भळी, ओटो अळी-झळी,
ना वा चीज मिली, इस रंज फिकर नै खां लिया।।

आज मेरे भागां कै ताळा ठूकग्या,
मै इस रंज फिकर मै फुकग्या,
रूकग्या पिंजरे मै सुवा, भागां का मुवा,
एक दिखै था कुआं, जब चारों तरफ लखा लिया।।

गुरू मानसिंह करो आनन्द,
कटज्यां जन्म मरण के फन्द,
कहै लख्मीचन्द छन्द घड़कै, मेरी छाती धड़कै,
मरूं कुएं मै पड़कै, बस आड़ै दिल समझा लिया।।

बार बार मन मे यही सोचते हुए क्या ख्याल आता है-

चीज मिली ना कई दिन होगे, न्यूं लड़कै नै फिकर करया।।टेक।।

मन जाणू किन भ्रमां मै लिपत,
मेरे मै ना सौदागर सिपत,
विपत टली ना न्यूं ऐं दुख भोगे,
चौगरदे नै ध्यान फिरया।।

भाभी के खोटे बोलां का असर,
छोडूं तै ना मरण का बिसर,
कुछ कसर घली ना सेल गढोगे,
जांणू मै जीवता-ऐ मरया।।

कुछ तै बाळक कुछ प्रदेश,
हे! प्रभू तेरे बिन कटै ना कलेश,
कुछ पेश चली ना भाग पड़ सोगे,
आज मै किस विपता मै आण घिरया।।

माईचन्द ज्ञान की बात,
करया जिन बन्दया तै उत्पात,
रही हाथ बली ना जहाज डबोगे,
ॐ के भजन बिन कोण तरया।।

अब हताश होकर चन्द्रगुप्त क्या सोचता है-

पुत पराया छोटा दरजा, सारी उमर रहैगा हरजा,
सोचण लाग्या डूबकै मरज्या, कुएं म्य पड़कै।।टेक।।

जै मैं चीज गया ना लेकै,
क्यूंकर रहूगां दर्द-दुख खेकै,
ताने देकै तन स्यारैंगी,
घा पै नूण-मिर्च डारैगी,
भाभी ताने सौ मारैगी, बता कित जांगा लड़कै।।

घरां इब के मुहं लेकै जांगा,
मनै बोल डाण का खागा,
आग्या वे न्यूं बोल कहैगी,
काया ताने नही सहैगी,
जाण पाटती आप रहैगी, कुणबे नै तड़कै।।

मेरे कर्मां नै करी जाग ना,
चीज मिलै मेरे इसे भाग ना,
लाग ना कूए में डूबकै मरग्या,
उनके लेखै कारज सरग्या,
सारा गात जहर तै भरग्या, घींटी तक अड़कै।।

घर तै चाल्या भले चंगे सौंण,
लागी किसी अनरिति सी हौंण,
कौंण मरण मै हो राजी,
कौण बणै दुख-सुख का साझी,
एक धुणा लारया था बाबा जी, न्यून तलै बड़ कै।।

कहै लख्मीचन्द समय फिरणे की,
सोच लई कुएं मैं गिरणे की,
झट मरणे की सुरती धरली,
निंघा उस बाबा जी की फिरली,
चन्द्रगुप्त की कौळी भरली, जब लिकड़ै था जड़कै।।

दुखी होकर चन्द्रगुप्त कुएं में गिरकर आत्माहत्या करने लगा तो भागकर बाबा जी ने हाथ पकड़ लिया। बाबा जी ने उससे आत्महत्या का कारण पूछा तो चन्द्रगुप्त ने अपनी समस्या बाताई। फिर बाबा जी चन्द्रगुप्त को कैसे समझाते है-

तज कै तमाम काम, राम नाम रट रे।।टेक।।

बच्चा साधुवां की मान, ज्ञान ध्यान धरले,
होकै नै होशियार, धार पार परले,
वो दीन का दयाल, हाल ख्याल करले,
कर नमतेड़ा ना लागै गेड़ा, बेडा तेरा तरले,
ना जा तोड़ी-मोड़ी, जोड़ी थोड़ी देर डट रे।।

बच्चा चार पहर का कहर, ठहर आज की रात,
करड़ाई की रौंण कौंण, तूं होण दे प्रभात,
वृष राशि राहू ताहू, साहूकार की बरात,
लाड हों घनेरे तेरे, फेरे हों किसी के साथ,
चिन्ता त्याग जाग, भाग लाग नेड़ै झट रे।।

ना दुख टला चला भला, परिवार तै लड़कै,
न्यूं के करै डरै मरै, क्यूं कूवे मै पड़कै,
क्यू दम खींचै अंखिया मिंचै, नीचै आ बड़कै,
दुख बहुत भरे कित आण घिरे, तेरे सिध्द काम हों तड़कै,
चमकै धूप सा अनूप, रूप सा सरूप छंट रे।।

गम खाज्या आज्या भाज्या, बच्चा मेरे पास म्हं,
ना दुख सहै फतैह रहै, जो सतगुरू की आस म्हं,
पहलम चोट राम नाम घोट, फेर लोट हरी घास म्हं,
कहै लख्मीचन्द थमज्या जमज्या, रमज्या राम सांस सांस म्हं,
क्यूं ना आंखिया खोलै डोलै होलै, बोलै प्रभू बीच घट रे।।

अब साधू जी कहते है मरने से कुछ हासिल नही होगा। तुम जाकर धर्मशाला में बैठ जाओं। सुबह एक बणिये की बरात आयेगी। उस बरात का जो दुल्हा है वह कुरूप तथा आंख से काणा है। वह तुम्हे दुल्हा बनाकर ले जायेगें और सुबह ऐसा ही होता। फिर बनियों और चन्द्रगुप्त के अनुबन्ध की बात कैसे होती है-

वो जिनस रही मेरी रै, जो छन्ना पे मिलैगी।।टेक।।

छन्ना पै चाहे मिलियो एक आन्ना,
मनै ना और चीज की चाहना,
थारा बेईमाना हेरा-फेरी रै, ना बालक तै झिलैगी।।

मेरा सोधी में कोन्या गात,
सिर पै तीन लोक का नाथ,
थारा बनड़ा रात अंधेरी रै, मेरी फुलवाड़ी तुरन्त खिलैगी।।

हम ना किसे सौदे म्य जिदे,
आज थाहरे मौके सधे,
कदे आंख बदलजां तेरी रै, हांगे की नही पिलैगी।।

इन बातां म्य मानू ना मूल,
चाहे डिगज्या धर्म की चूल,
थारे हाथां की सूल बखेरी रै, ना किले तै किलैंगी।।

लख्मीचन्द माळा रटै राम की,
भजन बिन जिन्दगी नही काम की,
थारे नाम की बछेरी रै, मेरे हाथां तै हिलैगी।।

बारातियों और चन्द्रगुप्त का अनुबन्ध हो जाता है और बनिया अपने साथियों से कहता है कि नए कपड़े पहनाकर दूल्हे की तरह सजादो और आगे क्या कहता है-

इस लड़के का ढंग बदलदो कपड़े नये पहरा कै,
बनड़े आळा भेष बणादो, सिर पै मोड़ धराकै।।टेक।।

औळे पां कै बान्ध राखड़ी, सौळे कर मै नाळा,
खश्बोई का तेल मशल दो, होज्यां ढंग निराळा,
कदे लड़के कै नजर लागज्या, टिका लादो काळा,
हसली पहरा दो सोने की, कटै रूप का चाळा,
आख्यां मै स्याही का डोरा, मन मोहले नजर फिरा कै।।

नया दुशाला गल मै तोड़ा, न्यू लाड लड़ा कै गेरे,
लोहे का गज दिया हाथ मै, हंस कै फूल बखेरे,
चन्द्रमां सा रूप खिला, सब मिटग्ये घोर अंधेरे,
ये दो काम तेरै जम्मै सै, इब बारोठी और फेरे,
फेर बेसक चाल्या जाईये, ये दोनो काम करा कै।।

घणां अकलंमन्द स्याणा सै, कोन्या बिसर कहण का,
जो कोए भला करै औरां का, ना फन्दे बीच फहण का,
पाप रूप तै सत माया का, कोन्या किला ढहण का,
तनै मुंह मांग्या इनाम मिलैगा, खाळी नही रहण का,
धन चहिये तै ले जाईये, ठाडी गोझ भरा कै।।

लख्मीचन्द कहै लगी जिगर मै, मुशिकल चोट झिलैगी,
सेवा का फल मेवा हो सै, जो करते ही तुरत मिलैगी,
भला करे तै भला हुया करै, कर्म की ज्योत जलैगी,
तेरे भाग तै म्हारे सेठ की, अगत बेल चलैगी,
नाव पड़ी मझदार बीच म्य, तू जाईये पार तरा कै।।

अब बरात दुल्हन के घर पहूंच जाती है। चन्द्रगुप्त की सुन्दरता के चर्चे होने लगे। बारोठी का समय हो गया तो आगे क्या होता है-

बारोठी पै आई सजनों, सेठ की बारात,
मोहर असर्फी फैंकण लागे कर-कर लाम्बे हाथ।।टेक।।

माया बचनां की बान्धी होज्या,
सहम माटी की चांदी होज्या,
ब्याह शादी मैं आन्धी होज्या, या बणिये की जात।।

खटका मिटग्या म्हारे बदन का,
चिमका लागै गौरे-गौरे तन का,
यो भूखा ना माया धन का, करियो मीठी-मीठी बात।।

म्हारी आनन्द होगी खोड़,
मिला बनड़े-बनड़ी का जोड़,
समधण देख बनड़े की ओड़, फूली नही समाई गात।।

लख्मीचन्द नै छन्द की मेर,
लगा दिए धन माया के ढेर,
करकै नै बखेर, बणा दिया नरसी आळा भात।।

अब चन्द्रगुप्त बनडा बनकर बारौठी पर जाता है तो उस समय कवि ने क्या दर्शाया है-

देख कवंर की शान, शहर सारा दंग होग्या,
जब आया बारोठी बना।।टेक।।

कट्ठे होरे थे नर-नारी,
बड़ा जमघट्ट जुडरया भारी,
सारी बोलै थी एक जुबान,
ब्याह का इसा रंग होग्या, कदे देख्या ना सुना।।

सुथरी श्यान गाभरू छोरा,
कंवर का बणरया सही डठोरा,
छोरा उम्र मै ठीक जवान,
एक सा ढंग होग्या, छोरा-छोरी के दिंना।।

कट्ठी हो मंगल गावै थी,
कुछ आपस मै बतलावै थी,
कई हाथ लावै थी नदान,
बोलता तंग होग्या, हांसी औरा के मनां।।

कहै लख्मीचन्द बनड़ी की चोरी,
आरते पै लुगाई कट्ठी होरी,
गोरी भी देखै थी घूंघट ताण,
रूप का इसा जंग होग्या, जब देखा पिया अपना।।

अब औरते चन्द्रगुप्त का सेहरा गाते हुए क्या कहती हैं-

किसी छा रही अजब बहार, जड़े लाल कणी सेहरे पै।।टेक।।

इन्द्र केसी झड़ी लागी, फूला की पड़ै फुहार,
चाची ताई बुआ बहाण, गावण लागी मंगल चार,
अगड़ पड़ोसण कट्ठी होगी, सब कुणबे की मिलकै नार,
गाती और बजाती चाळी, मीठी-मीठी बोलै बाणी,
उस बनड़े की श्यान देखकै, बार-बार पीवैं पाणी,
आरते पै कट्ठी होगी, छोटी-बड़ी याणी-स्याणी,
किसा उमंग भरया परिवार, आज हूई खुशी घणी सेहरे पै।।

इस बनड़े की गेल्या आऐ, प्यारे-मित्र नाती-गोती,
रूप सै सवाया इसका, सूरज केसी खिलरी ज्योति,
हीरे लाल कणीं मणीयां की, दिखै रिमझिम होती,
अंग्रेजी बाजे बाजैं ढोल, उपर डंका लाग्या,
जितने सै बराती सारे, छोरा छैला बाका लाग्या,
उठ रहा झरणांटा झोंका, औळा-सौळा जंग का लाग्या,
खड़ी चौगरदे नै नार, तेग तलवार तणी सेहरे पै।।

जामां और पाजामां पेची, सेहरा मोतियां से जड़या हूआ,
सवा लाख का अंगुस्ताना, गल मै तोड़ा पड़या हूआ,
एक नाई कंवर के पाछै, चंवर डुलावै खड़या हूआ,
चन्द्रमां से चेहरे उपर, मोतिया की लार पड़ी,
छोटी साली नेग मांगै, आरते पै हूई खड़ी,
चावल सी बतीसी ऊपर, सोने की दो मेख जड़ी,
रही सास असर्फी वार, खड़ी दस-बीस जणी सेहरे पै।।

कृष्ण सा बाराती बणया, गोपनियां मै रलकै चाल्या,
उठ रही महकार इत्र, कपड़या कै मै मलकै चाल्या,
सोळा साली करै अंघाई, सारियां तैं टलकै चाल्या,
लख्मीचन्द नै प्रेम मै भरकै, इस बनड़े का सेहरा गाया,
जैसे जनकपुरी मै धूम माचगी, रामचन्द्र जी ब्याहवण आया,
सीता केसी बनड़ी सज्जनों, रामचन्द्र सा पति हिथाया,
किसी होरी जय जय कार, घणी रंग रास बणी सेहरे पै।।

अब वहां की औरते सजे हुए दुल्हे को देखकर क्या कहती है-

तेरी सुरत पै कुर्बान, हो नारंगी सेहरे आळे।।टेक।।

मंगल गावै बाजे बाजै,
सिर पै स्वर्ण छत्र विराजै,
संग साजै धजा निशान, हो हुशियार बछेरे आळे।।

साथी आगे सारे संग के,
प्यारे आगे सारे ढंग के,
रंग के छैल जवान, हो उजले चिकने चेहरे आळे।।

कंवर की करै बड़ाई कैसे,
काळी जुल्फ लटक री ऐसे,
जैसे खेल रहे फण ताण, हो काळे नाग सपेरे आळे।।

ये छन्द लख्मीचन्द नै धरे,
हम तनै देख प्रेम मै भरे,
तेरे मुख में मिट्ठा पान, हो परिवार घनेरे आळे।।

अब धर्ममालकी की माँ आरता करती है तो औरतें क्या गाती है-

आरता हे! आरता, रलमिल करल्यो आरता।।टेक।।

चिन्ता दूर भगादो तन की,
बणी सजधज ज्यूं बिजली घन की,
इस भोले बनड़े के मन की, वार्ता हे! वार्ता,
हंस खिलकै करलो वार्ता।।

आज म्हारी आनन्द होगी खोड़,
मिलग्या बने-बनी का जोड़,
भले बनड़े के घोड़े का पौड़, मारता हे! मारता,
जली धरती दलकै मारता।।

रूप जणु चिमका लगै धूप का,
ध्यान डिगज्या किसे बेकूप का,
बादल इस बनड़े के रूप का, झारता हे! झारता,
जणूं चन्दा चिलकै झारता।।

श्री लख्मीचन्द गुरू के धाम का,
सखी तुम करलो भजन राम का,
ईश्वर बाळम म्हारे नाम का, तारता हे! तारता,
पर गळ मै घलकै तारता।।

बारोठी के बाद धर्ममालकी अपनी सखियों के साथ बैठ जाती है। सभी आपस में प्रेम भरी बाते करती है और धर्ममालकी को क्या क्या कहती है-

तनै जोड़ी बर पाया, हे! तेरी तेज रति,
थारी जोट मिली एकसार, किसी हद होरी भोले बनड़े पै।।टेक।।

ओढणां तै हो दखणी चीरां का,
बरतणां तै हो पन्नै-हीरा का,
उन बीरां का भाग सवाया,
हे! जिनके इसे हो पति,
सब भली करै करतार, किसी हद होरी भोले बनड़े पै।।

मालक सबके कारज सारै,
एक-एक इसा म्हारे ना का भी तारै,
यू म्हारै शिवजी ब्याहण आया,
हे! तू पार्वती,
रहा नाद बजा ललकार, किसी हद होरी भोले बनड़े पै।।

मिली बने-बनी की जोड़,
किसा सिर शोभा दे रहा मोड़,
जब यो म्हारी ओड़ लखाया,
हे! करी भंग मती,
हम दई ज्यान तै मार, किसी हद होरी भोले बनड़े पै।।

गुरू मानसिंह भोगै ऐश-आनन्द नै,
काट दो दुख-विपता के फन्द नै,
यो छन्द लख्मीचन्द नै गाया,
हे! ना सै झूठ रती,
कथ की कली धरी सै चार, किसी हद होरी भोले बनड़े पै।।

चन्द्रगुप्त और धर्ममालकी के फेरे है तो चन्द्रगुप्त क्या विचार करता है-

बणियां की चुकड़ात मैं, बैठे बड़े-बड़ेरे,
साली सपटी देखण लागी, सासू-सुसरा मेरे।।टेक।।

मारया मरग्या घूर का, मैं ना भुखा हूर का,
लोग बटेऊ दूर का, हूऐ सिंगल द्वीप म्य डेरे।।

मैं बस होग्या कर्म रेख कै, बेमाता के लिखे लेख कै,
रूप बनड़े का देख कै, सब होगे दूर अंधेरे।।

चमके लागें चेहरां पै, किसे मोती दमकैं सेहरां पै,
चन्द्रगुप्त के फेरां पै, होगे लाड भतेरे।।

गुरु मानसिंह दुख मेटग्या रै, मैं पाया के म्हा लेटग्या रै,
उड़ै लखमीचन्द भी फेटग्या रै, जित होवै थे फेरे।।

चन्द्रगुप्त आगे सोचता है-

कोए ले सकता हो मोल, बिकाऊ चीज अंनूठी सै।।टेक।।

कोए सुणने आळा जीता हो,
चाहे भरया चाहे रीता हो,
जै कितै सीता हो अनमोल,
या रामचन्द्र की अंगूठी।।

धर्म के जोड़े म्य सजरया था,
मन मै राम-राम भजरया था,
बजरया था सिंगलद्वीप मै ढोल,
या साहूकारी झूठी सै।।

हम सही सौदागरी करै सै,
घणखरे लेते मोल डरै सै,
भौत से करते फिरै सै मखोल,
धोरै ना कोड़ी फूटी सै।।

कहै लख्मीचन्द रंगत न्यारी नै,
मन मोह लिया बोली प्यारी नै,
मचा दी पनिहारी नै रोल,
सुणकै सिठाणी उठी सै।।

जब छन कहने का समय हूआ तो चन्द्रगुप्त कैसे छन सुनाता है-

छन पकिया छन पकिया, दोहा छन का,
चालता मेहमान बटेऊ, ढाई दिन का।।टेक।।

ब्याह म्हं सुथरा रंग ला दिया,
यो सूत्या सारा शहर जगा दिया,
सिहणी के संग ब्याह दिया, शेर बन का।।

छोरे का गोरा-गोरा गात,
सखी बतलावण लगी साथ,
करै था मिठी-मिठी बात, ना था भुखां धन का।।

फर्क ना लागै गोरे गातां मै,
मजा आवै आपस की बातां मै,
दे दिया तेरे हाथां मै, संतरा नये सन का।।

तुम बोलो सो बोल रसीली,
तूम चालो सो चाल छबीली,
तेरे हाथां मै तेग कटीली, तूं लड़ईयां रण का।।

बणगी आधे अंग की सांझी,
राखिये मेरे प्रेम नै ताजी,
तेरी राजी मै मेरी राजी, नही सै काम विघन का।।

पार होज्या हरि नाम रटे तैं,
सत भक्ति पै डटे तैं,
पिछले पाप कटे तै, वा पार गई गणका।।

यो छंद लखमीचन्द नै गाया,
आज का दिन मुश्किल तै आया,
उन बीरां का भाग सवाया, जिन्हे मिलै बालम मन का।।

चन्द्रगुप्त का सभी रसमों के साथ अच्छी प्रकार से विवाह संपन्न होता है। लाल और जूड़े व अन्य चीजे सम्भलवाते हुए धर्ममालती के माता-पिता क्या कहते है-

ले सच्चे मोती का जुड़ा बेटा नौ करोड़ी लाल ले।।टेक।।

तनै राजी होणा था सुणकै,
धर लिऐ बात हिए मै गिणकै,
चुन लिए बेटा मेरे तोता बणकै,
या पक्की-पकाई बाल लै।।

बेटा ऊंच-नीच नै तकिए,
बेटा मेरी बात नै लिखिए,
इन चीजां नै चौकस रखिए,
कदे कोए ऊत निकाल ले।।

किसा रंग लाग्या तेरे ब्याह कै,
इनै घाल ले खूब निगाह कै,
जननी मां तै दे दिये जा कै,
जेब के अन्दर डाल ले।।

लख्मीचन्द गुरू छन्द धरै सै,
बदी करण तैं सदा डरै सै,
ये तेरी साली-सपटी ठ्ठटा करै सै,
कदे बदल दूसरा ख्याल ले।।

सच्चे मोती लाल और जुड़ा ले कर चंद्रगुप्त वह से निकलने की तैयारी करता है और जाते-जाते धर्ममालकी को सब कुछ बता देता है कि मेरा काम यही तक था। धर्ममालकी सारी बातें अपने पिता को बताती है। जब सबको ये बात पता चलती है तो उस समय का कवि कैसे वर्णन करता है-

चौड़ै कालर फूट लिया,यो भाण्डा थारै भ्रम का,
धक्के देकै त्हादो नै, इब के सै काम शर्म का।।टेक।।

ढले बिना तै मूल रहै ना, जो कर्मा का पासा सै,
कहो सेठ तैं चाल्या जा, इब क्या की आशा सै,
ब्याह तै हो सै बना-बनी का, और झूठा रासा सै,
सिंगलद्वीप मैं ठहरण तै, इब टूकड़े की सांसा सै,
एक बख्त खा लिया प्रेम तैं, जो टूकड़ा थारे कर्म का।।

ये दो काम होया करै ब्याह मै, बारोठी और फेरे,
धर्म छोडकै अधर्म करते, जग मै लोग भतेरे,
रात नै रंग बसंत ऋतु पर, दिन मै घोर अंधेरे,
गधे के सिर पै मौड़ बांधकै, बणै बटेऊ मेरे,
ब्याह करवाकै साजन ताह दिया, कुढ़ा देख नरम का।।

लोभी और लालची बन्दे, भोगैं नरक निशानी,
सेठ जाण कै करीं रसोई, करकै सतपकवानी,
ब्याह शादी हो ढोल कै डंकै, इसमै भी बेईमानी,
धोखा करकै हाथ घाल दिया, सेठ की इज्जत कान्ही,
प्राचीन मर्यादा तोड़ दी, कर दिया नाश धर्म का।।

इसी कार तै दूनियां के म्हां, चोर और जार करै सै,
एक बनड़ी के दो बनड़े, कौड त्यौहार करै सै,
मात-पिता बेटी का संकल्प, एक ही बार करै सै,
लख्मीचन्द धर्म की चर्चा, सब नर-नार करै सै,
मरती बरियां धेल्ला ना उठै, आदम देह चर्म का।।

अब सारी पोल खुल जाती है और लड़की वालो ने उस बारात को मारमीट कर भगा दिया। उधर चन्द्रगुप्त वापिस ऋषि के पास आते हुए क्या-क्या सोचता है-

जती मर्द और सती बीर का, यो ढंग ऋषि बतावैं,
जती मर्द और सती बीर, ना गैर तै नजर मिलावै।।टेक।।

पतिव्रता का दुनियां मै, एक पति कवारा हो सै,
भूख-प्यास टोटे-खोटे मै, गैल गुजारा हो सै,
जती मर्द भी सती बीर तै, ना हरगिज न्यारा हो सै,
कितै सुणया ना ब्याह फेरां पै, बना उधारा हो सै,
आगै कित की फतह करैंगे, जो छल तै वंश चलावै।।

दो चीजां के लोभ मै आकै, करली कार ढेठ की,
जाण पाटतै ही सास मरैगी, बुरी हो आग पेट की,
रात दिखा दिया चन्द्रमां, दिन मै धूप जेठ की,
इन लूंगाडया नै कठ्टे होकै, ले ली जात सेठ की,
ऐकले की के पार बसावै, जित सौ लुच्चे जाल फलावै।।

दिन लिकड़ते ही इस झगड़े की, जाण जरूर पटैगी,
उस बनड़े नै आगै करते ही, सारी नगरी नाटैगी,
जै पतिव्रता का धर्म बिगड़ज्या तै, वा अपणा गळ काटैगी,
कै मात-पिता नै भली सोचली, ना आप जहर चाटैगी,
फेर देखूं विदा पै पल्ला करकै, ये कितना दान घलावै।।

उस साधू के पास चालूं, जब कुछ भय भागैगा,
सती बीर नै जती पुरूष, हरगिज ना त्यागैगा,
पतिभरता का धर्म बिगड़ै, जै जग अवगुण रागैगा,
कहै लख्मीचन्द कर खबर, कै ना दोष तेरै लागैगा,
नाव पड़ी मझधार बीच मै, वो साधू-ऐ पार लगावै।।

चन्द्रगुप्त ने सोच लिया कि इस तरह जाना ठीक नही है, तू वापिस उनके घर चल वही जाने पर तेरे को सब पहचान लेगे और अब क्या सोचता है-

करकै दूर जिगर का धड़का, असली भेद बतादू जड़ का,
आखिर सै बणिये का लड़का, ऊंच-नीच का ख्याल सै।।टेक।।

वो माणस सै मेरी निगाह मै, सारा काम हूया रंग-चा मै,
ब्याह मै लाड भतेरे हो लिऐ, देया-लेई घनेरे हो लिऐ,
उसके संग मेरे फेरे हो लिऐ, जो वेद रीत की चाल सै।।

वै बहू बणाकै होरे राजी, वा होरी मेरे अंग की साझी,
पै पाजी कै डर नही हूया तै, ह्रदय मै हर नही हूया तै,
जै आज उजगर नही हूया तै, उस बणिये की का काल सै।।

बाग उजड़ज्या सै बिन माळी, सब झड़ज्यां फल-पत्ते डाळी,
गाळी सारा देश बकैगा, बुराई सहण तै नही छिकैगा,
जै उसनै और कोए तकैगा, वो मेरे नाम का माल सै।।

जितणे सै मेरे मित्र-प्यारे, तन-मन धन तैं होज्यां न्यारे,
सारे ताने दिया करैंगे, के लख्मीचन्द सदा जिया करैंगे,
आड़ै गादड़ पाणी पिया करैंगे, यो शेर बबर का ताल सै।।

वापिस आकर चंद्रगुप्त सबसे माफ़ी मांगता है और सारा हाल बताता है। धर्ममालकी कहती है की मेरी शादी आपसे हुयी है। मैंने आपके साथ अग्नि के फेरे लिए है। इसलिए आप ही मेरे पति-परमेश्वर हैं। और अपनी माँ से क्या कहती है-

हे! मां राजी हो कै घाल मनै, तेरी बेटी नै तेरे चरण लिए।।टेक।।

मनै सब तज दिया दंगा-रोळा,
पति मिल्या जवान श्यान का भोळा,
मौज उड़ाई 16 साल मनै, एक बेटे का वरदान दिए।।

जुग-जुग जियो मेरे पिता,
हारे धर्म दिए सब जिता,
दई बता धर्म की चाल मनै, लाख वर्ष तक और जिए।।

हरा भरा रंग फल पांता का,
परवरिश बाग तेरे हाथां का,
सै सब बातां का ख्याल मनै, तेरे बाळकपन में दूध पिए।।

एक थी अश्वपती की पुत्री,
लख्मीचन्द धर्म से पार गई कत्री,
हे! मां सावित्री की ढाल मनै, मेरे भाईयां के ब्याह में याद किए।।

धर्ममालकी की बात सुनकर उसकी माता खुशी से भर जाती है और क्या कहती है-

बेटी मेरी आत्मा न्यू कहती, फूलो-फलो सुहाग तेरा,
लेण देण मै कसर ना छोडी, आगै बेटी भाग तेरा।।टेक।।

हीरे-पन्ने मौहर-असर्फी, जेब के अन्दर डाल दई,
लाख रूपये की पोशाक पराह कै, बरत कुटम्ब की चाल दई,
दस तीळ दस लाख रूपये की, बणा हाल के हाल दई,
सब जेवर सोने के पराह कै, लाड-चाव से घाल दई,
भूल कै गिर पड़ी थी कुएं मै, फेर निमत गया जाग तेरा।।

सोलह बर्ष तक लिखा पढा़ कै, बड़े प्रेम से बात करी,
पतिव्रता के धर्म की चर्चा, हित से दिन-रात करी,
खवाणा-प्याणा लाड लडाणा, परवरिश अपने हाथ करी,
यो चन्द्रगुप्त प्रदेशी लड़का, राम समझ कै साथ करी,
हंस के साथ हंसणी करदी, के कर लेगा काग तेरा।।

लाख रूपये की पोशाक बणी, जो गोरे बदन पै खूब खिली,
चमके लागे तारे से टूटें, ना नजरो से झोक झीली,
सिंगलद्वीप की सोलह राशी, पदमनी पवन के साथ हिली,
सारा शहर सराहना कर रह्या, जोड़ी जोगम जोग मिली,
परमेश्वर नै दे दिया साबण, पति धोवण नै दिल दाग तेरा।।

मात-पिता नै अपनी बेटी-बेटा, तेरी शरण गेरी,
आ बेटा तेरा सिर पुचकारू, उमर हजारी हो तेरी,
लख्मीचन्द नै ज्ञान की चर्चा, रात-दिनां हित से टेरी,
धड़ पर सिर काट लिये जै, खोटी कार करै सुता मेरी,
हम नौकर सा तू लिऐ मालकी, यू परवरिश कर दिया बाग तेरा।।

अब धर्ममालकी के माता-पिता बहूत सारा धन देकर धर्ममालकी को चन्द्रगुप्त के साथ विदा कर देते है। धर्ममालकी को लेकर चन्द्रगुप्त जहाज को चलता कर देता है तो कवि क्या दर्शाता है-

ब्याहली बहू नै लेकै चल्या, चलता कर दिया जहाज,
झमा-झम होरी पाणी पै।।टेक।।

ब्याहली बहू की सुरती बर म्य,
दोनूआं की लग्न लगी सही हर मै,
जैसे समुन्द्र मै चन्दा खिल्या, जब हूर मानती लाज,
रूप का था जोर सेठाणी पै।।

दोनूं बतलावै थे कैसे,
आपस मै नजर मिलै थी ऐसे,
जैसे अम्बर मै करकै कला, झगडते हो दो बाज,
तीसरी एक ज्यान बिराणी पै।।

हूर का गोरा गोरा-गात,
झौके तै लगै थे पवन के साथ,
कौण बात जो हो ना भला, जब ईश्वर सारै काज,
दया करो जोड़ी याणी पै।।

लख्मीचन्द छोड सब फंड,
मिलता कर्म करे का फल दंड,
सैकिण्ड-मिनट घड़ी घण्टा ढल्या, धन्य कारीगर घड़ी साज,
खर्च दी अकल कमाणी पै।।

अब धर्ममालकी को लेकर चन्द्रगुप्त जहाज चलता कर देता है तो कवि क्या विचार प्रकट करता है-

कथा सुणी जती सती के धर्म की, याद रहैगी मन में,
ना छोडी मर्याद पुराणी, यो सुख हरि भजन में।।टेक।।

तेरह ऋषि तैंतीस देवता, बावन जनक बताए,
ग्रहस्थ धर्म का पालन करकै, फिर जति कहलाए,
जति लक्ष्मण सति उर्मिला, दुनिया नै गुण गाए,
ग्रहस्थ धर्म मै हरिशचन्द्र नै भी, हर के दर्शन पाए,
सावित्री नै किया था संकल्प, भूली ना बचपन मै।।

कांशी राज की तीन कुमारी, भीष्म जी नै ठाई,
एक साल बेटी कर राखी, फेर बेदी रचवाई,
पिता कै संकल्प सोचके, अम्बा फेरां पै बतलाई,
मेरे पिता नै करया संकल्प, शाल्व संग करी सगाई,
संकल्प से हुआ ब्याह जाणकै, तुरन्त खंदादी बण मैं।।

मात-पिता और सास-सुसर, ब्याह करकै होज्या राजी,
फेरा के बख्त पै दान कन्या का, होज्या अंग की सांझी,
न्यू सोची थी के पतिव्रता खुद, रहैंगी धर्म की आंझी,
जै ब्याह करवाकै चला गया तै, लोग कहैंगे पाजी,
मनै सारी रात फिकर मै काटी, मेरै रही उचाटी तन मै।।

धर्म कताई धर्म बुनाई, धर्म धुनाई लोढी,
बेअकले कपड़े तार धरे, और धर्म चादर ओढी,
बण मुस्ताख फिरूं दुनियां मै, ले पोस्त कैसी डोडी,
सारा जगत बकैगा गाळी, जै ब्याह करवा कै छोडी,
लख्मीचन्द भगवान समझ, रख ध्यान गुरू चरणन मै।।

जहाज चलता रहा अब चन्द्रगुप्त और धर्ममालकी आपस मे बाते करने लगे। एक दुसरे परिवार के बारे मे क्या पूछते है-

किसे सभा के मात-पिता और किसे सभा के भाई,
किस रंग ढंग से करो गुजारा बूझै सै थारी ब्याही।।टेक।।

धर्ममालकी:-
या तै मैं भी जाण गई, तुम जहाज भी भरया करो सो,
सौदा सुत्त व्यवहार सा करते, जग मै फिरया करो सो,
गऊ ब्रह्मण साधू की सेवा, यज्ञ भी करया करो सो,
मात-पिता के चरणां के मैं, सिर भी धरया करो सो,
आपस मैं थारा प्रेम भी सै अक ना, निन्दा छोड पराई।।

चन्द्रगुप्त:-
किसे मुल्क में दगाबाज, ठग चोर और जार घणे सैं,
म्हारै गऊ-ब्रह्माण साधू की सेवा मै, खुश नर-नार घणे सैं,
सिंगलद्वीप मैं एक घर थारा, बाकी ताबेदार घणे सैं,
म्हारे हरियाणे मै जमीदार, घर साहूकार घणे सैं,
मात-पिता आगै बेटा-बेटी, राखैं बोलण तलक समाई।।

धर्ममालकी
शहर के अन्दर दुर्गे का मन्दिर, भवन भी हुआ करै सै,
तीर्थ व्रत यात्रा के मै, गमन भी होया करै सै,
कुऐ-प्याऊ धर्मशाला पै, हरा चमन भी होया करै सैं,
संधया तर्पण गायत्री का, हवन भी होया करै सै,
ठाडे-हीणें गरीबा की सब, सोच्या करै भलाई।।

चन्द्रगुप्त:-
म्हारे हरियाणे मै कुकर्म करते, वैं बेईमान मरै सैं,
चोर-जार लुच्चे-डाकू तै, सब इन्सान डरै सै,
ग्रहस्थ धर्म के पालन खात्तिर, पुन्न और दान करै सै,
तीर्थ व्रत यात्रा का म्हारै, ऋषि-मुनि ध्यान धरै सै,
खाण-पीण ओढण-पहरण की, मैं कब तक करूं बडाई।।

धर्ममालकी
चैत तै ले कै फेर चैत तक, तीज त्यौहार मनाणे,
तीज सिलोने दशहरे नै, माने जा धी ध्याणे,
होई ग्यास दिवाली नै, गोवर्धन रंग जाणे,
माह-पोह मै सकरात मनावै, बसंत के गुण गाणे,
होली-दुलहन्डी सीली सातम्, आठम नै देबी माई।।

चन्द्रगुप्त:-
तीज त्यौहार मनावण का, म्हारे हरियाणे में रंग सै,
चलै व्योवहार त्यौहार सर खाणा, चाहे कोए कितनाए तंग सै,
गऊ-ब्राह्मण साधू सेवा का, सारी दुनियां कै सतसंग सै,
प्यार प्रीत और लेण देण का, सबकै मना उमंग सै,
मेरे कैसे दुखिया की कीरत, लख्मीचन्द नै गाई।।

अब धर्ममालकी कहती है आप अपने आप को दुखियां कहै रहो हो, क्या मै जान सकती हूं। तब चन्द्रगुप्त कहता है, हां मेरे को बहूत बड़ा दूख है मै तुम्हे बताता हूं और एक बात के द्वारा क्या कहता है-

दुनियां के सब नर-नार, सारे एैश लुटै सै,
मात-पिता की ओड़ की, मेरै झाल ऊठै सै।।टेक।।

ले लिया जन्म कर्म हारे मै,
जाण पाटगी जग सारे मै,
दो सौ रूपये के बारे मै, मेरी खाल चूंटै सैं।।

गहणै धरया पिता नै लाल,
करया ना छूटवावण का ख्याल,
लाखां लाखां के माल धरे, गहणै छूटै सै।।

जिसकै नाग विपत का लड़ज्या,
उसके सारे नक्से झड़ज्या,
जो मात-पिता तै बिछड़ज्यां, उसके भाग फूटै सै।।

लख्मीचन्द चालती बेग,
ईज्जत हाथ राखणी तेग,
सच्चे मात-पिता के नेग, न्यूं के तोड़े टूटै सै।।

अब धर्ममालकी चन्द्रगुप्त को एक बात के द्वारा क्या कहती है-

जाण दे हो भूल जा पिया, रंज-फिकर नै त्याग दे।।टेक।।

इसी हो सै पतिवर्ता नारी,
तन पै ओटै मुसीबत भारी,
पार्वती जैसे शिव की प्यारी,
क्रोध करें जब सती कती,
धड़ तैं सिर नै त्याग दे।।

तन पै भारी विपत सही थी,
जान फन्दे के बीच फही थी,
दमयंती पति के साथ गई थी,
दुख सुख नै एक सार समझ,
पतिवर्ता घर नै त्याग दे।।

जोड़े मै गेल सजी थी,
माला दिन और रात भजी थी,
रामचन्द्र ने भी सिया तजी थी,
त्याग दई थी सती कती,
कुण ब्याहे बर नै त्याग दे।।

लख्मीचन्द हरि गुण गावैगे,
फेर मन इच्छा फल पावैंगे,
वे नर पाछै पछतावैंगे,
जो छोडकै धर्म कर्म
मूर्ख नर डर नै त्याग दे।।

चन्द्रगुप्त की बात सुनकर धर्ममालकी कहने लगी कि मैं अच्छी तरह से नहीं समझ पाई आप मुझे खोलकर समझायें। अब चन्द्रगुप्त धर्ममालकी को सारी बात कैसे समझाता है-

दयावती जननी पै करदी राम नै दया,
एक जणां था जेठा बेटा धोरै ना रहा।।टेक।।

ठोकर के संग नौकर, चार घाल्या करते,
पलभर भी धोरे तैं, ना हाल्या करते,
मात-पिता कच्चे दूधा तैं, पाल्या करते,
हम जगत सेठ थे, जहाज हमारे चाल्या करते,
इसी फिरी माया राम की, वो धन खोया गया।।

जब मै छः साल का था, हम डूब-तरगे,
एक दमड़ी तक ना छोड़ी, घर मै चोर फिरगें,
कुछ धन जलग्या-लुटग्या, तीनूं भूखे मरगे,
फेर हापूड़ मै मनैं, पिता जी गहणै धरगें,
मात-पिता की ओड़ का, दूख जाता ना सहया।।

मनसा सेठ कै रहकै, मनै पढाई भी करी,
परदेशां मै घूम-घूम कै, कमाई भी करी,
कई कई बर उस कूणबे की, बडाई भी करी,
मार-पीट लिया तै, मन-मन मैं समाई भी करी,
के बुझैगी सेठाणी, कुछ जाता ना कहया।।

श्री लखमीचन्द कहै, मनसा सेठ कै रह्या करूं सूं,
उस सेठ की सेठाणी नै, मां कह्या करूं सूं,
मेरै दो भाई-भावज, मन की लह्या करुं सूं,
मेरै सौ-सौ तान्ने मारै, मैं सह्या करूं सू,
एक तू पल्लै ला दी, यो दुख दुनिया तै नया।।

अब धर्ममालकी चन्द्रगुप्त की सारी बात सुनकर क्या कहती है-

मात-पिता नै पाली जण कै,
सोला साल बिता दिये गिण कै,
सासू-सुसरे का दुख सुण कै,
मेरै बाकी ना तन म्य।।टेक।।

जिकर सुणकै गई डर मैं,
जिनकै सुत का दर्द जिगर में,
वैं क्यूकर घर मै डटते होगे,
आयू के दिन घटते होगे,
मुश्किल तै दिन कटते होगे, मैं न्यू सोचू मन मै।।

तनै दुख मात-पिता का सै गहरा,
तूं इब टोटे मै ना रहरा,
न्यूं कहरा घर डेरा कोन्या,
कोये भी सनीपी मेरा कोन्या,
हर के घर का बेरा कोन्या, जाणै के करदे छन मै।।

दुख मै ना कोए चाचा-ताऊ,
सारी दुनियां दीखै हाऊ,
उनके दुश्मन साऊ लड़ते होगे,
क्यूकर घर मै बड़ते होगे,
सांस मार कै पड़ते होगे, दुख भर कै दिन मै।।

लख्मीचन्द कहै यो दुख मोटा,
इब तूं नही उमर का छोटा,
टोटा जी ले दिया करै सै,
दुशमन दुख दे दिया करै सै,
बिन समझे खे दिया करै सै, दुख बालकपन मै।।

अब चन्द्रगुप्त चिन्ता में पड़ गया सोचने लगा कि धर्ममालकी को साथ लेकर गया तो सब यह कहेगें कि रूई बहूत ज्यदा लाभ हूआ है उस लाभ में शादी कर ली। इस काम से मेरे पिता जी के नाम पर बट्टा लगेगा, इसलिए इसको साथ ले जाना सही नही है। अब चन्द्रगुप्त क्या सोचता है-

नफे में ब्याह करवा लिया, जग अवगुण रागैगा,
पिता ताराचन्द के नाम कै, न्यू बट्टा लागैगा।।टेक।।

मैं इन्है आज ब्याह कै ल्याया,
यो दिन बड़ी मुश्किल तै आया,
दई सुसरे की धन माया, इसनै क्यूकर त्यागैगा।।

घरा दो भाभी सै बेअकली,
उननै जै ओछी मंदी तकली,
छोडकै नै ऐकली, कित डूबण भागैगा।।

दूख की झाल जोर से बगती,
मेरे मै ना रोकण की शक्ति,
फिकर मै आंख भी ना लगती, न्यू कद लग जागैगा।।

कहै लख्मीचन्द बहू सै शादी भोली,
म्हारी बणिया की जात घणी ओली,
छोटा ऊत सै करौड़ी गोली भर-भर दागैगा।।

अब चन्द्रगुप्त जहाज को किनारे पर लगाकर आराम करने लगा, जब धर्ममालकी सो गई तो चन्द्रगुप्त के दिल में ऐसा ख्याल आया कि धर्ममालकी को जहाज में सोती हुई छोड दूं। अब दोनो पेटी बन्द करकै उसके पास में तालियां रखकर चन्द्रगुप्त धर्ममालकी को सोती हूई छोडकर वहा से चलने तैयारी करता हूया क्या क्या सोचता है-

दान दिये सांसू-सुसरे नै, दमडी तलक सम्भाले,
लत्ते कपड़े टूम ठेकरी, सब पेटी में डाले।।टेक।।

घणा माल था दोनूं पेटी, ठोक-ठोक कै भरदी,
लाल और जूडे की कीमत, वा भी म्हा-ऐ धरदी,
मुंह का थूक सूकता आवै, चेहरे ऊपर जरदी,
मरिये चाहे जीवती रहिये, मनै राम हवालै करदी,
गुच्छा गेर दिया बिस्तर पै, बन्द करकै दोनूं ताले।।

सिंगलद्वीप में बसै पदमनी, सर्पां शीश मणी सै,
सीप मै मोती पत्थर मै हीरा, तू हीरे बीच कणी सै,
धन्य सै वे मात-पिता, जिननै पतिव्रता हूर जणी सै,
आज तेरा पाला रहा जीत मै, मेरी खता घणी सै,
धर्मराज कै भी चोर तेरा, जब कहैगी खोल हवाले।।

सारी जिन्दगी भूलूं कोन्या, न्यूंऐ जंग झोया करूंगा,
मुधा पड़-पड़ दुनियां मै तेरी, पैड़ा नै टोया करूगां,
कहै ना सकूं किसे तै मन की, जिंदगी नै खोया करूगां,
सिंगसद्वीप तैं चाले थे, उस घड़ी नै रोया करूगां,
सांस-ससूर नै घणा धन देकै, हम लाड-चाव तै घाले।।

कहै श्री लख्मीचन्द झाल बगैं, मै आप डूब तर लूगां,
खता करे की धर्मराज कै, जाते ही हां भर लूगां,
दोफारी और सुबह शाम तनै, रोज याद कर लूगां,
तेरी बातां नै कोन्या भूलूं, मै इतनै ना मर लूगां,
सेठ की लड़की हम सेठ तै डरते, राम-रमी दे चाले।।

अब चंद्रगुप्त धर्ममालकी को छोड़कर जाता है तो धर्ममालकी के विषय में क्या विचार आते है-

सास-ससुर बिन ईज्जत कोन्या, बहू-जमाई की,
गैरां के घर रहणा मुश्किल, जात लुगाई की।।टेक।।

तूं घरां रहै मै रहूं बहार,
दोनूं बोलण तक लाचार,
वे बीर-मर्द पै लेंगे कार, नाण और नाई की।।

कोई सी भावज गल मै घलज्यागीं,
मेरी देखकै तबियत जल ज्यागी,
तनै के दक्षिणा मिलज्यागीं, खाली चून पूवाई की।।

कौण सुणै सूणांऊ जिसनै,
कित मै खाकै मरज्या विष नै,
सास बिना हो सीलक किसनै, बहू पराई की।।

लखमीचन्द प्रेम की बाणी,
अपणे घरां टोटे मै भी सेठाणी,
नौकर बणकै रोटी खाणी, पड़ै समाई की।।

अब जहाज थोड़ी दूर ही गया था कि रास्ते में चंद्रगुप्त को हिचकी आती है हिचकी आने पर चंद्रगुप्त क्या सोचता है-

हिचकी आई तेरी गोरी याद की,
बणकै तेग दुधारी फौलाद की,
लगी काटण-चाटण बांटण, लाकै ध्यान नै चौफेरै।।टेक।।

हुआ फांसला घणी दूर का,
उस धर्ममालकी हूर का,
कर इंतजाम तमाम राम, दई छोड़ भरोसै तेरै।।

तनै मै हरगिज भी ना त्यागता,
मै बेईमान छोड़ दिया जागता,
तूं पड़कै सोगी खोगी होगी, किसी भ्रान्ति सी मेरै।।

फेर जीते जी मिलण की आस ना,
कोए बूझण आला पास ना,
तज रोया पीटी मीठी घिटी, घोट कै नै गेरै।।

कहै लखमीचन्द दिन रात नै,
मै के भूलूं तेरी बात नै,
परी मुख खोलै डोलै बोलै, किसे फूल से बखेरै।।

धर्ममालकी की याद आने पर चन्द्रगुप्त मन मे पश्चाताप करने लगा, जब नही मिलूगां तो वह अपने प्राण त्याग देगी, और इस तरह क्या क्या विचार करता है-

धर्म पर चालते थे सदा, आज भूल भारी हो गई,
जहाज कै म्हा चलते चलते, यादगारी हो गई।।टेक।।

ईश्वर नै दई थी जन्नत, जिन्दगी भर के साथ को,
आज फूटगी तकदीर म्हारी, वो हमसे न्यारी हो गई।।

सोचू था के बट्टा ना लागै, मात-पिता के नाम को,
इस रंज मै हमसे अलहदा, प्राण प्यारी हो गई।।

सपने तलक नही भूलूंगा, जै आ भी गई मेरै सामनै,
धूर दरगाह तक दावा तेरा, किसी जात मारी हो गई।।

खाक ऐसे लाख पर, जरा सोच लख्मीचन्द तू,
अब वो कहीं और हम कही, किसी इन्तजारी हो गई।।

आगे चंद्रगुप्त क्या सोचता है-

जहाज के मै बैठे-बैठे कै याद गौरी धन की,
कोए भी ना पास उसकै, बुझण आळा मन की।।टेक।।

मास्सा-मास्सा घटती होगी,
दुख मै छाती फटती होगी,
क्यूकर झाल डटती होगी, गोरे से बदन की।।

कदे ना देखी गर्मी-सर्दी,
जिन्स थी वा चौड़ै धरदी,
करड़ाई नै दुर्गति करदी, याणे से जोबन की।।

मेरी किस्मत पड़कै सोगी,
होणी दूनियां तै खोगी,
टापू मै पड़ सीली होगी, बिजली गगन की।।

हाथी के-सा हुम लागै,
पायां सुथरी टूम लागै,
घाघरे की घूम लागै, तील नये सन की।।

लख्मीचन्द गुरू के चेले,
खूब खाऐे खूब खेले,
इब हाथां मै माला ले ले, हरि के भजन की।।

अब चन्द्रगुप्त अपने घर हापूड़ पहूच जाता है। अपनी माता को प्रणाम करता है तो मां ने पूचकार कर छाती से लगा लिया और क्या कहने लगी-

जहाज पै गया था छोरा, ब्होत सा दर्द ओटा,
राम जी की जगह जाण कै, माता के पायां मै लोटा।।टेक।।

मेरा-थारा राम भगत किसा नाता,
ना दिल किसे चींज नै चाहता,
चाहे जिस तरहा राखिए माता, तेरा सबतै बालक छोटा।।

ईश्वर के करदे एक छन मै,
बाकी के रहरी सै तन मै,
उठै झाल भतेरी मन मै, बहू का रंज-फिकर था मोटा।।

चाहे घर चाहे बहार रहूगां,
बणकै आज्ञाकार रहूगां,
जिंदगी भर ताबेदार रहूगां, मेरा सिर थारा सोटा।।

लखमीचन्द छंद नै गावै,
सदा सतगुरु को शीश झुकावै,
बख्त के उपर काम आवै, खोटा बेटा पैसा खोटा।।

अब मनशां सेठ की सेठानी लड़के चन्द्रगुप्त को क्या कहती है-

आज्या मेरे लाल उरै हो पुचकारुं,
किसी चन्द्रमां सी श्यान बेचारे की।।टेक।।

तू मेरा बेटा गरीब गऊ सै,
मेरे हित-चित हिए जिए का लहू सै,
छोटी बहू सै छिनाल, भतेरी पीटू मारूं,
उसनै करदी जात बिरान बिचारे की।।

तेरे कारण बडे आनन्द भोगे,
फर्क करै तै रहै ना क्याहें जोगे,
तनै होगे बारह साल, के जिकर खोल कै डारू,
थी बालक उमर नादान बिचारे की।।

तेरी मां पूरी पैज परण की,
ना ठट्ठे मै बात डरण की,
उसकी हांसी करण की ढाल,कद लग कायदे नै सूधारु,
सै भाभी घरा जवान बिचारे की।।

लखमीचन्द प्रेम में भरिए,
मतना नीत बदी पै धरिए,
करिए सतगुरु शिष्य का ख्याल, कदे ना बाजी हारूं,
सबकै हाजिर ज्यान बिचारे की।।

मां-बेटे के बीच बाते हो रही थी इतनी देर में मनशा सेठ आ जाते हैं। चन्द्रगुप्त ने मनशा सेठ को राम रमी की अब मनशा सेठ लड़के चन्द्रगुप्त से व्यापार बारे क्या पूछते है-

रूई के नफे की बूझै, बात लाला जी,
सिंगलद्वीप जंजीरे मै, किस भा बिक री सै।।टेक।।

नफे मै दूणे दाम रहे,
आढ़ती आगे नऐ-नऐ,
गऐ पन्दरां-सौला जहाज,
एक साथ लाला जी,
आछी भूंडी भली बूरी, एक भा मै धकरी सै।।

तेरे कर्मां तै ना माया थोड़ी,
हमनै कोडी-कोडी जोड़ी,
मेरे करोड़ी और मरोड़ी नै,
खोदी जात लाला जी,
तूं रहा सब तरियां होशियार, मनै बिल्कुल बेफिकरी सै।।

तूं तै बांध मेरे दोनूं घाट,
ला दिए सभी तरहा के ठाठ,
तेरी बाट देखरे आवण की,
दिन-रात लाला जी,
तेरी मां तेरे जावण की, घड़ी मूहूर्त दिन लिखरी सै।।

लखमीचन्द रहया बता गौर तै,
मैं ना करता बात जोर तै,
और तै सब तरियां तै,
आनन्दी मै गात लाला जी,
एक काचे से घा कै ऊपर, चिंगारी टिकरी सै।।

अब चन्द्रगुप्त अपने मात-पिता से मिलने के बाद अपनी दोनों भाभीयो के पास जाता है। वह लाल और जूड़ा उनको दे देता है। अब दोनों भाभी चन्द्रगुप्त से क्या कहती है-

भली करी थी परमेश्वर नै,
राजी-खूशी घर आग्या,
लाल और सच्चे मोतीयां का जूड़ा,
हाथ कड़ै तै लाग्या।।टेक।।

लाल और जूड़ा चीज खरी सै,
मोल लेण की नही जरी सै,
तेरी आख्यां के म्हां नींद भरी सै,
बता रात नै कित जाग्या।।

या हाथां मैहंदी खूब रचाई,
तेरे चादरे कै हल्दी लाई,
इन आख्यां के म्हां घलरी स्याई,
रंग बनड़े का छाग्या।।

ये ब्याह मै चींज दिया करै बणियां,
तू रुई का व्यापार करणियां,
लाल और जूड़े का बेचणियां,
यो सौदागर कित पाग्या।।

लखमीचन्द नही पढ़रया सै,
गूरु की दया तै दिल बढ़रया सै,
तेरै बंदड़े कैसा रंग चढ़रया सै,
रूप मेरै मन भाग्या।।

अपनी भाभीयो की इतनी बात सूनकर चन्द्रगुप्त अपनी शादी की बात छूपाने की कैसे कोशिश करता है-

ब्याह-शादी का जिकर सूणया,जब नाड़ तले नै गो कै,
जाण पटण के डर का मारया, भीतर बड़ग्या रो कै।।टेक।।

जल पीवण का ओडा लेकै, चलू भरली मुंह धो लिया,
करकै ओट आत्मा रोकी, मन-मन मै दुख रो लिया,
भाभी के बोला का अपणे, तन मै सेल चुभो लिया,
पैसा-धेल्ला हो तै ल्हकोल्यूं, ब्याह भी कड़ै ल्हको लिया,
ब्यहा-शादी और जन्म-मरण नै, बता राखै कौण ल्कोह कै।।

पाही बणकै करूं गुजारा, हुकम बजाणा हो सै,
जित भेजो ऊड़ै चाल्या जा, टेम पै आणा हो सै,
भूख-प्यास मै मरते-मरते, जब कितै खाणा हो सै,
चलते कै दूणी आर लगै, इसा क्यू धिंगताणा हो सै,
के मिलज्यागा चंद्रगुप्त कै, इसे बोल के सेल चुभो कै।।

किसनै के ना जाण पटी, जिस दिन तूं ब्याही थी,
तेरे डोले आगै म्हारै कूणबे की, बीर खड़ी पाई थी,
सब कुणबे कै चाव चढया, जब चाले मै आई थी,
जिंदगी भर ना भूल सकै, तूं जितणा धन लाई थी,
चंद्रगुप्त करै जिकर घरां, उड़ै हूर जागली सो कै।।

मर्द की जड़ मै सेवा करती, बीर जागणी चाहिए,
बीर-मर्द के दिल की चिंता, अलग भागणी चाहिए,
समझणियां माणस नै ना, सती बीर त्यागणी चाहिए,
जिस तै मतलब पूरा होज्या, इसी रागणी चाहिए,
कहै लखमीचन्द पड़ै काटणें, आया था जिसे बो कै।।

अपनी भाभी की इतनी बात सुनी तो चन्द्रगुप्त के चेहरे पर उदासी छा जाती है तो उसकी भाभी एक बात के द्वारा क्या कहती हैं-

गिल्ला मतन्या मानै देवर, हांसियां मै कर री थी।।टेक।।

मेरे तै वो बख्त ना टाल्या गया,
पाछै मेरा खोट निकाल्या गया,
उस दिन भी ना बोला चाल्या गया,
घणी तेरी मारी डर री थी।।

उस दिन बात लिकड़गी मुख सै,
जब तै मेरी इज्जत मै टूक सै,
आड़ै तै चुग्गे तक का दुःख सै,
मैनां पिजरे मै घिर री थी।।

पात्थर पड़गे मेरी अक्ल बही पै,
दूनियां तै मरती चीज नई पै,
उस दिन की बात कही पै,
देवर सासू छोह मै भर री थी।।

लखमीचन्द ज्ञान बिन कोरा,
बिना सतगुरु के नही धर-धोरा,
रुस कै चला गया छोरा,
सारया कै न्यूंए जर री थी।।

दूसरी तरफ टापू में धर्ममालकी की आंख खुल जाती है। उठकर देखा तो वहां चन्द्रगुप्त नही था और न जहाज दिखाई देता है तो धर्ममालकी गहरी चिंता भरी हुई क्या-क्या विचार करती है-

सुती उठकै देखण लागी, हूर सेठ की जाई,
ना जहाज दिखता, ना साजन दिये दिखाई।।टेक।।

और किसे का दोष नही, सब मेरा कर्मा का फल सै,
डांटे तैं भी डटता कोन्या, जोबन होली कैसी झल सै,
साजन यो तेरी ब्याही का गल सै, क्यूँ काटै सै बणकै कसाई।।

बेमाता नै जोड़ी बदली, मारुंगी टक्कर डांण कै,
मेरे साजन तेरी ब्याही रोवै, लेले नै दया आण कै,
मेरे मात-पिता नै राम जाण कै, पंचा मै पल्लै लाई।।

तेरै भरोसै इस टापू म्य, बेधड़के तै सोगी,
एकली नै छौड़ डिगरग्या, इब क्यूकर के होगी,
तेरी मोहन माला पहरण जोगी, टापू मै तोड़ बगाई।।

लखमीचन्द तूं पार उतरज्या, श्री कृष्ण के गुण गा कै,
जै इसी सोचै था तै मेरे पिया, क्यूं ल्याया था ब्याह कै,
मेरे सजन संगवाले आकै, तेरी रेते मै रलै सै कमाई।।

धर्ममालकी आगे क्या सोचती है-

खुड़का सुण ल्युंगी सहज-सहज मै,
प्रीतम की खांसी का,
मेरी एकली की जान लिकड़ज्या,
काम नही हांसी का।।टेक।।

तू भी मेरे बिना एक जणा सै,
मेरा तेरे मै प्रेम घणा सै,
साच बता के खोट बणया सै,
मुझ चरणन का।।

तेरे बिन लागै मेरा जिया ना,
रोटी खाई पाणी पिया ना,
टापू कै मै तरस लिया ना,
मुझ भुखी और प्यासी का।।

पिया मेरी राही मै कांटे बोग्या,
तेरा तै सहज जाण नै राह होग्या,
मेरी छाती के म्हा घा होग्या,
बता के जतन करुं तलाशी का।।

कदे घाटा ना था धन जर का,
तू दुखड़ा देगा जिंदगी भर का,
लख्मीचन्द भजन कर हर का,
भोले अविनाशी का।।

धर्ममालकी ने चन्द्रगुप्त की काफी तलाश की लेकिन चन्द्रगुप्त कही नही मिला तो रोने लग जाती और क्या विलाप करती है-

कोड करी तनै रात नै, बणजारे केसी आग,
धंधकती छोडग्या पिया।।टेक।।

मैं बता किस पै पहरुं-ओढ़ूं,
यो तन कपास की ज्यूं लोढ़ूं,
मैं के छोडू थी तेरे साथ नै, गया सोवती नै त्याग,
सजन किसा धोखा सा दिया।।

मै इब सांस मार कै रोऊं,
आगै आज कैसी ना सोऊं,
ईब कड़ै लहकोऊं इस गात नै, काच्चे दूध कैसी लाग,
लटकती जाणूं दरखत पै घिया।।

क्यूं बात हांसियां मै टालै,
तनै मै छोडी अधम बिचालै,
तेरे कोण सम्भालै फल पात नै, गया उजड़ लखीणां बाग,
सजन तनै तरस ना लिया।।

कहै लख्मीचन्द प्रेम की वाक,
कोए पतिव्रता जाणैगी साख,
चली याद राख इस बात नै, खुलैंगे कदे नै कदे भाग,
हुई थी जैसे पार सती सिया।।

अब धर्ममालकी होश संभालती हुई क्या विचार करती है-

लेकै फकीरी भजन करूंगी, अपने साजन की तलाश मै।।टेक।।

क्यूं रोवै के गजब हो लिया,
काटले जिसनै जिसा बो लिया,
जैसे दमयंती नै पति टोह लिया,
छोड गया था बणवास मै।।

पतिव्रता अपणे पति नै टेरै,
यो बेड़ा राम भरोसै तेरै,
तनै उड़ण नै ना पर दई मेरै,
जा चढूं तै कहीं आकाश मै।।

हे! ईश्वर मेरी दया लिये,
मनै रंज-गम के प्याले पिये,
पति मेरे नै पुत्र दिये,
नित्य रहूं चरण की दास मै।।

लख्मीचन्द दुःख-दर्द टलैंगे,
जणै कद हटकै चमन खिलैंगे,
जीवती रही तै पति फेर मिलैंगे,
गई बैठ तेरे विश्वास मै।।

अब धर्ममालकी ने साधू का भेष धारण कर लिया और क्या सोचती है-

मेरी नणदी के बीरा हो,
मनै फकीरी भेष भर लिया।।टेक।।

सजन काम हूआ था रंग चाह का,
यो धन दिया हूआ था मेरी मां का,
तेरै ना का पंचरगा चीरा हो,
मनै सगवां कै धर लिया।।

ऊं तै थी अकलबन्द घणी चातर,
आज रही ना मखमल की भी कातर,
कदे पात्थर हीरा हो,
मेरा गलियां मे रंग बिखर लिया।।

दिखती म्य सब के बीच ठहर कै,
चाहे सब कुणबा भरया हो कहर कै,
पहर कै झीरम-झीरा हो,
मेरी जोड़ी म्य साजन सिंगर लिया।।

कहै लख्मीचन्द तेरे संग ब्याही थी,
म्हारै रंग-चा की अस्नाई थी,
ल्याई थी माल जखीरा हो,
आज मेरा सब तरियां मन भर लिया।।

जिस टापू पर धर्ममालकी साधू का भेष बनाकर भजन कर रही थी, वही पर आकर दिल्ली के सोदागरों ने अपना जहाज रोक दिया। फिर सोदागर टापू पर घूमते है तो उसमे एक सोदागर की नजर बाबा जी पर पड़ जाती है। वह बाबा जी के तेज को देखता रहा और थोड़ी देर बाद जहाज पर वापिस आकर सभी सोदागरो के सामने क्या कहता है-

मोटी-मोटी आंख कटीली, त्यौर चटाके का,
टापू के म्हां यो एकला, बाबा जी सांके का।।टेक।।

परिया कैसा रुप-हुश्न, उसका पाटरया चाळा,
गळ मै नाद-जनेऊ, या हाथ रूद्राक्ष की माळा,
घरबार छूटग्या किस ढाळा, इसे ऊत पाके का।।

रूप-हुश्न पै चाळा कटरया, ब्योत खोटा सै,
ना नजर मिलाकै बात करै, यो दूख मोटा सै,
गोल-गोल मुंह छोटा सै, उसका ब्योत पटाके का।।

एक बात तनै कहै रे सैं, अमृत कर घूंटले,
अड़ै टापू मै ना ठीक, म्हारी गैल्या उठले,
कोए चोर-उचक्का लूटले, भय भारी डाके का।।

श्री लखमीचन्द कहै जीत कै चाले, धर्म रूप का जंग,
बाबा जी तनै डोब गया, किसे साधू का सत्संग,
बाबा जी तेरा रंग-ढंग, किसे छैल बांके का।।

सभी सोदागर बाबाजी को कहते है कि हम दिल्ली जा रहे है। आप भी हमारे साथ चलो। यहां निर्जन वन में रहना ठीक नहीं। दिल्ली का जिकर किया तो धर्ममालकी को चन्द्रगुप्त की बताई बात याद आ जाती है। उसने सोचा दिल्ली में जाकर शायद चंद्रगुप्त मिल जाये। ऐसा इरादा करके सोदागरों के साथ दिल्ली में आ जाती है और धर्ममालकी क्या विचार करती है-

सब सेठा के साथ सेठाणी, आई दिल्ली मै,
फिरूं टोहवती मिलै नणंद का, भाई दिल्ली मै।।टेक।।

मनै सोवती नै छोड़ गया, के चालै था जोर मेरा,
मेरी तड़गी आंख लखाते जले, दुख पाग्या त्योर मेरा,
धोखा देकै ठग लेग्या, तूं फेरया का चोर मेरा,
तनै हापूड़ तक टोहऊंगी, सै इतना हक और मेरा,
मनै फेर दूसरै दर्शन दे, अन्याई दिल्ली मै,
ना तडफ-तडफ कै मरूं, ब्होत दुःख पाई दिल्ली मै।।

मनै सोवती नै छोड़ गया, मेरै यो दूख दूणा सै,
था जितणा मनै प्रेम पिया, तनै मेरा क्यूं ना सै,
तेरी श्यान का मेरे कालजै, लिख्या नमूना सै,
सब जगत बसाया बसै राम का, तेरे बिन सुन्ना सै,
तेरे बिना मेरी के, यारी-अस्नाई दिल्ली मै,
सब अप-अपणे मतबल के, लोग-लूगाई दिल्ली मै।।

कितै लुहकरया हो तै आज्या, होली हांसी तेरी,
झुक-झुक कै करूं आरता, क्युकि दासी तेरी,
सब टूम-ठेकरी या धन माया, सत्यानाशी तेरी,
तनै दिल्ली तक टोहऊंगी, क्यूं कि तलाशी तेरी,
मनै तेरे दम के कारण, ठोकर खाई दिल्ली मै,
कोये सुणती हो तो मत आईयो, त्रिया जाई दिल्ली मै।।

माईचंद नै भेजी थी, पिया जब घर तै चाली,
दिये लंगर खोल जहाज के, इतनै मै भर पाली,
तूं हापूड़ आला तैं डरग्या हो, दिल्ली के दिल वाली,
तेरा सांच-मांच मुंह पाया, चिकणा पेट पड़या खाली,
मनै मांग सिंदूर हटाकै आप, राख रमाई दिल्ली मै,
फेर राजघाट पै आण धूणी, लाई दिल्ली मै।।

धर्ममालती के दिल्ली पहुँचने के बाद का कवि ने क्या वर्णन किया है-

जहाज के म्हां बैठ सेठाणी, दिल्ली मै आई,
जमना जी के कंठारे पै, आकै धुणी लाई।।टेक।।

सेवा करले मर्द जती की,
जब मुक्ति हो बीर सती की,
दिल्ली के म्हां मेरे पति की, जन्म की भौंम बताई।।

तेरा नां लेकै पार तरूंगी,
सच्चे मन तै तेरा ध्यान धरूंगी,
जमना जी तेरे व्रत करूंगी, जै मिलै नणंद का भाई।।

जिसपै दया कृष्ण करते,
उसके मन को प्रसन्न करते,
नये साधू का दर्शन करते, आकै लोग लूगाई।।

कई-कई तील धरी नऐ सन की,
कोये नही बूझण आळा मन की,
साजन बिन इस काया धन की, उठै ना एक पाई।।

गुरु मानसिंह भोगै ऐश-आनन्द नै,
काटो म्हारे तीन ताप के फन्द नै,
अपने सेवक लख्मीचन्द नै, वर दे दूर्गे माई।।

सेठ ताराचंद भी रोजना जमना जी पर स्नान करने आया करते थे। एक दिन ताराचंद की नजर धूणे पर पडी़, पास जाकर देखा तो साधू के भेष में धर्ममालकी ईश्वर के ध्यान बैठी थी। फिर ऐसा देखकर ताराचंद बहूत प्रसन्न हुआ और क्या कहता है-

ताराचंद की नजर पड़या, एक नई श्यान का योगी,
उस साधू का रुप देख कै, सीली काया होगी।।टेक।।

गऊ-ब्राह्मण साधू की सेवा, करकै नियां करै थे,
चरणाव्रत बणा पां धोकै, अमृत पिया करै थे,
दूनियां मै हूण्डी चालै थी, सब यश लिया करै थे,
कदे इसे-इसे साधू घरा बैठकै, दर्शन दिया करै थे,
इब किसका दोष बताऊं, सीख हरीराम की खोगी।।

टोटे मै फिरूं टूलता, गल फांसी घली मै झूलता,
श्याम-सवेरी दोफारे मै, कदे अधर्म मै नही फूलता,
हे! परमेश्वर भजन बन्दगी नै, मै हरगिज नही भूलता,
हे! ईश्वर तेरी अदभूत माया का, कोन्या भेद खुलता,
मूधा पड़-पड़ टोहऊं पैडा नै, कित किस्मत पड़कै सोगी।।

पीपा भगत और सम्मन सेउ, तनै सबके कारज सारे,
नंदा नाई सदन कसाई, प्रभू बड़े-बड़े पापी पार तारे,
एक धन्ना जाट सन्तों मै मिलकै, हरी नाम पुकारे,
कांकर बो-दी मोती उपजै, तूं सबके करै सै गुजारे,
दासी सुत से नारद कर दिये, जो कई जन्म के रोगी।।

मानसिंह सतगुरु जी के आगै, लोटै दास चरण मै,
जुणसा भाव गुरू चेले का, छोडू नही पर्ण मै,
ब्रह्मरुप भगवान स्वरूप, नित्य सेवक रहू शरण मै,
बड़े-बड़े दूख बतलाये प्रभू, जन्मत और मरण मै,
साधू बणकै कष्ट हरो प्रभू, मनै विपता बहोत दिन भोगी।।

सेठ ताराचंद साधु की सेवा में लग जाता है-

जमना जी पै साधू आया, सेवा मैं चाल पड़या ताराचंद सेठ।।टेक।।

न्यूं रोऊं सूं सिर धुण-धुण कै,
ज्ञान कथा पुराणी सुणकै,
प्रभू बावना बणकै अलख जगाया,
लोटे मै मांगी भूमि की भेंट।।

शरीर तै एक दिन न्यूए खूणे,
तोड़कै मोह-माया के जूणे,
जाकै धूणै पै शीश झुकाया,
करकै ताराचंद नै दिल के म्हा ढेठ।।

पैदा होकै सबनै खपणा,
चाहिए था हरि नाम जपणा,
चकवे बैन नै अपणा नशा दिखाया,
पल मै कर दिए सागर तै लेट।।

गूरू मानसिंह करो आनन्द,
काटो फांसी यम के फन्द,
लख्मीचन्द नै भेद पाया,
ये हरी हर दे पल मै दुख नै मेट।।

अब सेठ ताराचंद उस साधू के पास गया और हाथ जोड़कर दण्डोत प्रणाम किया। साधू जी ने जब भोजन देखा तो सेठ ताराचन्द से पूछता है आपका क्या नाम है और कहां के रहने वाले हो। मै सिर्फ द्विज कूल का भोजन खाता हूं। आप कौनसे वर्ण से संबन्ध रखते हो और सेठ ताराचंद से साधू क्या कहने लगे-

कौण गाम शुभ नाम आप, हो जी कौण वर्ण के।।टेक।।

भोजन द्विज जाती का पाते,
फेर सही ईश्वर का गुण गाते,
हमनै नगद दाम नही चाहते,
ना भूखे थेली भरण के।।

करया करै सेवन-भोजन यजन,
करते बूरे काम का तजन,
हम करै हरि नाम का भजन,
सै पूरे नेम पर्ण के।।

प्रेमी लोग चणे के देवा,
खाते समझ अनूठी मेवा,
जो करै सच्चे गुरु की सेवा,
वे पूरे नेम पर्ण के।।

करै लख्मीचन्द हरी का जाप,
धोरै आवैं ना तीनू ताप,
सच्चे गुरु की दया तै पाप,
कटज्या जन्म-मरण के।।

अब सेठ ताराचंद साधू को क्या जवाब देता है-

ताराचंद कंगाल नाम सै,
टोटे मै बेहाल नाम सै,
बीते बारा साल नाम सै,
लकड़ी ढोवणिया।।टेक।।

कदे सारा कुणबा आनन्द सहै था,
सारा जग साहूकार कहै था,
सत्संग रहै था ऋषि मुनियां मै,
ब्राह्मण साधू-संत गुणियां मै,
धर्म तजे बीन इस दुनियां मै,
कौण मेरे जहाज डबोवणियां।।

मालिक रीते खजाने भर दे,
ताज चाहे जिसके सिर धरदे,
जाणैं कै करदे प्रभू एक पहर मै,
टोटे की रहया डूब लहर मै,
सांझ तलक सौ मिलै शहर मै,
मेरै सेल चभोवणीयां।।

तन पै लागी चोट सेकली,
भजन बन्दगी पै नीत टेकली,
लाख देखली करकै सूरत,
पेट भरण की मिटी ना जरूरत,
एक हाथ तै छूटरी मूरत,
मेरे मन की मोहवणियां।।

मेरे सब छूटगे ऐश-आनन्द,
गल मै घल्या विपत का फन्द,
लख्मीचन्द की लग्न रघुबर मै,
सच्चे गुरु का प्रेम जिगर मै,
एक दयावती पतिव्रता घर मै,
मेरी गेल्यां रोवणियां।।

अब सारा हाल सुनकर धर्ममालकी समझ गई कि ताराचंद सेठ उसके ससुर है क्योंकि ये सब हाल उसे चन्द्रगुप्त ने पहले ही बता दिया रखा था। उसने ताराचंद से बोला कल सुबह आपको मेरे धूणे में एक चींज मिलेगी, उसे गिरवी रखकर आप अपने पूत्र को छूड़वा लेना। बेटे के छूड़वाने की बात से प्रसन्न होकर ताराचंद क्या कहता है-

मीठी-मीठी बाणी बोल्या,
हर्दय पै निशाना लाग्या,
बेटे के छूटण की सुणकै,
आंख्या के मै पाणी आग्या।।टेक।।

मारूं दूर खड़या चिल्ली मै,
जैसे दाव शेर-बिल्ली मै,
हटकै फेर बसज्या दिल्ली मै,
जै बेटा मेरा जीवता पाग्या।।

ऋषि कित मरूं घोट कै गल नै,
डोब दिया मै दुशमन के छल नै,
ताराचंद डाटले दिल नै,
ना तै फटके में जी लिकड़ज्यागा।।

बाकि कुछ ना रही तन मै,
मेरी दिन-रात की सुरत भजन मै,
ताराचंद फिकर करै मन मै,
बेटे का हाबका खाग्या।।

लख्मीचन्द छन्द तोले जां,
गुरु की सेवा म्य डोलें जां,
घणखरे मुंह पै मीठे बोले जां,
तले कै फेर जां तागा।।

अब ताराचंद घर जाकर अपनी सेठानी से क्या कहता है-

सेठानी न्यू जचगी मेरे ध्यान मै,
म्हारे हटकै सू-दिन आग्ये।।टेक।।

मनै तै ईब सोची सै गहरी,
राम का भजन करूंगा अठपहरी,
आकै बैरी की जुबान मै,
हम उस दिन धोखा खाग्ये।।

मेरी इस दुख मै जान जलै थी,
लिखी कर्मा की नहीं टलै थी,
कदे मेरी हूण्डी चलै थी जहान मै,
आज लकड़ी बेचण लाग्ये।।

बात ईब छोड़ दिए डर केसी,
विधी ईब होण आली घर केसी,
एक परमेश्वर केसी श्यान मै,
ऋषि जमना जी पै पाग्ये।।

लख्मीचन्द जिसनै गुरु का सत्संग लिया,
उसनै जीत जगत का जंग लिया,
जिसनै दिल रंग लिया ब्रह्मज्ञान मै,
वैं सुसप्त गति मै भी जाग्ये।।

अब सेठानी दयावती ने इतनी बात सूनी तो क्या वाक्या बना-

करते रहे बात दोनूं, इतणे मै दिन लिकड़ आया।।टेक।।

माला बिन कदर नही मणियें की,
चीरकै दो फाड़ करो धणीये की,
सै बणियें की जात दोनूं, हापूड़ में एक मित्र पाया।।

अपणी सुध-बुध लेंगे गिरधारी,
मन मै तै खुशी हुई बड़ी भारी,
जागे सारी रात दोनूं, फेर बेटे का जिकर चलाया।।

सेठानी इब बात करै ना डरकै,
कदे नै कदे हो न्याय ईश्वर कै,
भरकै सब्र गात दोनूं, कर मेहनत टूकड़ा खाया।।

मानसिंह गुरु के चरण मै दौड़ू,
कोन्या भ्रम बात का फोड़ू,
जोड़ू सू ये हाथ दोनूं, हे! ईश्वर तेरी अद्भभूत माया।।

ताराचंद सुबह उठकर साधू जी की तरफ चलते हुए क्या कहते है-

गऊ-ब्राह्मण साधू की सेवा, कदे दुःख नै धो ज्यागी,
कहीं सांझ की साधू जी, तेरी साची भी हो ज्यागी।।टेक।।

मंगती-भूखी दुनिया, मेरे तै सदाव्रत ले खा थी,
धन माया की चोगरदै झाल लागती जा थी,
दूनिया मै हून्डी चालै थी, धन की चाहना ना थी,
जगत सेठाणी दयावती, मेरे चंद्रगुप्त की मां थी,
पता नहीं था हरीराम की, सीख मनैं खो ज्यागी।।

जै साधू तेरी झूठ लिकड़गी, तै क्यूकर के गत होगी,
हटकै फेर बसैं दिल्ली मै, जै साधू की सत होगी,
सेठाणी कै भी साची जचज्या, जब पूरी पत होगी,
आगा-पाछा सोच्या करता, आज पत्थर की मत होगी,
दयावती कद हटकै रूई केसे, पहलां पै सो ज्यागी।।

धन माया का भरया खजाना, सुन्ना छोड सगड़ गए,
बेटे साठ हजार गाभरूं, ये गोडे खूब रगड़ गए,
गऊ-ब्राह्मण साधू सेवा तज, राजा बैनू तक झगड़ गए,
मनै जाण पटी ईब धर्म तजे तै, बड़े-बड़े सेठ बिगड़ गए,
धन मिलज्या तै झोली भरलूं, वा दयावती बो ज्यागी।।

श्री कृष्ण नै युद्ध करकै, ब्याही रुकमण-सतभामा,
भगत का नाता श्रीकृष्ण संग, देवर-जेठ सुदामा,
सारी दुनिया फिरै भरमती, नामां हो कीतै नामा,
लख्मीचन्द दो दिन का जीणा, कर आगे का सामा,
या दुनियां लिप्त हुई माया मै, सहम डले ढो ज्यागी।।

अब सेठ जी अपने मन में विचार करते हुए धीरे-धीरें उस साधु जी के धुणें पर पहुंच गए और क्या विचार करते है-

साधु जी के धूणें धौरे, पहुंच कंगाल गया,
टुक डरता-डरता, मन्दी सी चाल गया।।टेक।।

इस बाबा जी की टहल करे तै, जाणैं फेर निमत जागै,
याणी सी उमर का सुथरी शान का, प्यारा घणां लागै,
राम जाण बाबा जी आगै, खुल सारा-ऐ हाल गया।।

सब की सेवा करया करूं था, दुखियां के मन ल्यूं था,
एक महीने में दान करण के, पूरे सोला दिन ल्यूं था,
मैं किस साधु पै धन ल्यूं था, मेरा-ऐ अरबां का माल गया।।

उनका भला कदे ना हो, जो चोरी का खाया करै,
पाप नष्ट हों उन बन्दां के, जो गंगा मै नहाया करै,
कुरड़ी का भी उदय आ जाया करै, बीत बाहरवां साल गया।।

लखमीचन्द सतगुरु की सेवा, अमृत रसधार घूंटज्या,
टोटे में कम इज्जत हो, प्यारां तैं मेल टूटजया,
धन मिलज्या है पूत छुटज्यां, झट हापुड़ मै ख्याल गया।।

अब ताराचंद साधू को प्रणाम करके धूणे की राख मे हाथ मारता है। एक सोने की कांगणी मिलती है और कांगणी को लेकर क्या कहता है-

एक सोने की मिली कांगणी,
ज्यादा राख टटोली कोन्या,
ले कै चाल पड़ा ताराचंद,
आंख संत नै खोली कोन्या।।टेक।।

चमके लागै थे गोरे-गोरे तन मै,
दूसरा नही संकल्प मन मै,
लौ लगरी थी हरि भजन मै,
ठीक समझ कै बोली कोन्या।।

जिसके दिन आज्यां सोले,
मूर्ख लोग रहै ना भोले,
सोना पूरा पच्चीस तोले,
इतणे तै कम तोली कोन्यां।।

चाहे टोटा हो जबर किसे कै,
के करणी सै खबर किसे कै,
जब क्याहें तै भी ना सबर किसे कै,
इस मर्ज की गोली कोन्या।।

धन-धन सै गुरु मानसिंह मेरे,
लख्मीचन्द प्रेम से टेरे,
होठ पीटते फिरै भतरे,
पर हाथ लागती डोली कोन्यां।।

अब सेठ ताराचंद घर आकर सेठानी दयावती को धूणे मे से मिली कांगणी को दिखाते है और कांगणी को देखकर सेठानी क्या कहती है-

कांगणी ले आया, यो तेरा दुख टलग्या,
साधु के मिला सै, तनै तै राम मिलग्या।।टेक।।

धरले परमेश्वर का ध्यान,
रहज्या बणी-बणाई श्यान,
उस दिन हरिराम बेईमान, तेरै गल घलग्या।।

सुणिए दयावती के पिया,
पिछला करया भोग सब लिया,
गऊ-ब्राह्मण साधू को दिया, दान फलग्या।।

सजन तूं लग्न लगाले हर मै,
मतना रहिए सोच-फिकर मै,
तेरे अंधेरे से घर मै, दीवा फेर चसग्या।।

लख्मीचन्द हरि गुण गाले,
माणस करणी का फल पाले,
जा अपणे बेटे नै छूटाले, तेरा काम चलग्या।।

अब सेठानी कहती है कि वह साधू हमारे लिए भगवान है। मै उसकी सेवा करना चाहती हूं। पहले आप उसे अपने घर ले आओ, फिर चन्द्रगुप्त छूटाने के लिए जाना और सेठानी सेठ से क्या कहती है-

जां साधू के धूणे धोरै, घरां बुलाकै ल्याइऐ,
हापूड़ नै पिया, फेर चाल्या जाइऐ।।टेक।।

राम बराबर समझणा चाहिए,
जो औरां के दूख नै बांटै,
मात-पिता ज्यू ईज्जत करिए,
जो रोवते के दिल नै डांटै,
जै साधू घर आवण तै नांटै, तै सेवा घणीएं ठाइऐ।।

हाथ जोड़ कै मतन्या डिगिए,
साधू जी की जड़ तै,
बिछड़या मोती फेर मिलादे,
अलग हुआ जो लड़ तै,
न्यू कह इतनै आऊं हापूड़ तै, ऋषि भोजन म्हारै खाइऐ।।

जै साधू जी नहीं आए तै,
मेरा लागै नही जिया,
हाथ जोड़ कै टहल करूं,
मै करल्यू सर्द हिया,
परसों नही तै परले दिन पिया, आड़ै-ऐ खड़ा पाइऐ।।

कंस पाप का घड़ा फुटज्यां,
जै मथूरा मै कृष्ण होगे तै,
लख्मीचन्द हरि रक्षा करैगे,
जै साधू जी प्रसन्न होगे तै,
जै तनै बेटे के दर्शन होगे तै, इस साधू के गुण गाइऐ।।

अब साधू जी ताराचंद को घर चलने हेतु मना कर देते हैं। फिर दुबारा से सेठ जी विनती करते हैं और क्या कहते है-

आऐ-गये अतिथि के बदलै, दुख-सुख भर जाणै सै,
चलो ऋषि बेफ़िक्र घरां हम सेवा कर जाणै सै।।टेक।।

जगत सेठ ताराचंद नै, कदे जग मै कहया करैं थै,
ताराचंद इस दुनियां के, सब आनन्द सहया करैं थे,
शील-शांति दया-धर्म, मेरे दिल में रहया करैं थे,
भण्डारे भरपूर रहै थे, न्यूं ईश्वर दया करैं थे,
किसे की आत्मा नही सताई, हम इतने भी डर जाणै सै।।

कदे तै ताराचंद दुनियां के, जहाज खरीदा होगा,
पर इस मोके पै टूकड़े तक का, आप नदीदा होग्या,
भूखे मरते टल्ला करते, मुश्किल सीधा होग्या,
थारी मेहर फिरी तै हटके बसै दिल्ली, मेरै सही यकिदा होग्या,
धर्म कै ऊपर चलते-2 हम डूब कै तिर जाणै सै।।

जिसा मैं सेवक उसी मेरी सेठाणी, हिये नरम आली सै,
सुबह उठ स्नान करै, वा नेम धर्म आली सै,
आऐ-गये की टहल करै, वा ल्हाज-शर्म आली सै,
तनै राम समझकै बात पूछले, जो खास महरम आली सै,
जै टोटे मै ना रिजक मिलै तै, हम घास भी चर जाणै सै।।

हाथ जोड कै अर्ज करूं सूं, ना और कोए दगा बाजी,
मनै अपने कैसी मिली सेठाणी, आधे अंग की सांझी,
दूनियां मै ठग बहुत फिरै सै, पाप करणियां पाजी,
लख्मीचन्द अपणे सतगुरु की, सेवा करकै राजी,
ऋषि जिसी मन में थी उसी कहदी, आगै हर की हर जाणैं सै।।

अब साधू सेठ को क्या समझाते हैं-

घरबारी और साधू का, मेल नही सै,
साधू का नगरी मै बसणा, हांसी खेल नही सै।।टेक।।

दूनियां मै सौ-सौ रंग के जादू,
हम किसे तै बात करै ना बाधू,
हम सै और किस्म के साधू, इन तिलां मै तेल नही सै।।

मिलग्या जितणा था मेरा साझा,
ईब चाहे रंक रहो चाहे राजा,
इस साधू का मुल्हाजा, किसे की गैल नही सै।।

जो कुछ कर्म लिख्या फल पाले,
जा अपणे बेटे नै छूटवाले,
भौं कोए फल खाले, या मीठी बेल नही सै।।

लख्मीचन्द इब विश्वास होग्या,
सतगुरु जी का दास होग्या,
जो गुरू कै आगै पास होग्या, वो फेल नहीं सै।।

ताराचंद ने बहूत प्रार्थना करी पर भी साधू जी घर जाने के लिए नही माने तो ताराचंद उसके पांव पकड़ने लगा, किन्तू साधू ने उसे अपने पांव नही छूने दिए क्योकि उसे इस बात का पता था कि सेठ ताराचंद उसके ससूर हैं। बहुत निवेदन करने साधू ने कहां पहले आप अपने पूत्र को छूड़वा लाओ। शहर के निकट आने पर मुझे खबर कर देना। अब सेठ ताराचंद कांगणी को गिरवी रखकर तथा रुपये लेकर हापूड़ पहुंच गया। सेठ मनशा को ताराचंद के आने की खबर मिली तो उसका सम्मान करने के लिए दौड़ पड़े। दोनों सेठ गले मिलते हैं और इस मोके पर कविराज क्या वर्णन करते है-

मिले कौली भरकै सेठ जी, आज बारह वर्ष मै फेर मिले।।टेक।।

गंगा जी के धाम पै, पगड़ी बदल बणे यार थे,
एक बै गंगा पे मिलै, दूजै मिले तेरे घर मिले।।

क्या करूं तकदीर नै, गहणै धरा दिया पूत को,
मेरै टोटे नै खुश्की करी, तुम जब मिले जब जर मिले।।

फूटगी किस्मत मेरी, लकड़ी तक बिकवा दई,
सीने से सीना मिला फिर, धड़ मिले सिर-कर मिले।।

मात-पिता मित्र-गुरु, आच्छै मिलै शुभ कर्म से,
लख्मींचन्द प्यारे मिले तो, ऐसे मिले जैसे हर मिले।।

अब मनसा सेठ पूछते है कि भाई ताराचंद आज कैसे आगमन हुआ तो ताराचंद क्या कहते है-

प्यारा माणस वो हो सै,
जो भीड़ मैं काम सारदे भाई,
ये ले दो सौ नकद रूपइये,
पाछला हरफ तारदे भाई।।टेक।।

न्यु तै दुनिया मै प्यारे बहोत घणें सै,
पर तेरे कैसे एक-आध जणें सै,
घणे दिंना मै दाम बणें सै,
यो टोटा जी तै मारदे भाई।।

भजन करूं था सुबह-शाम का,
मारया मरग्या हरिराम का,
वो माणष ना किसे काम का,
जो करकै पर्ण हार दे भाई।।

कर्म की बाजी चली हार म्य,
फर्क पड़या ना म्हारे-तेरे प्यार म्य,
मै धंसरया सूं पाप गार म्य,
तू पकड़कै अधर उभार दे भाई।।

लख्मीचन्द छन्द नई तर्ज का,
तनै बेरा सै मेरे मर्ज का,
सिर पै भरोटा धरया कर्ज का,
पकड़कै तलै डारदे भाई।।

अब मनसा सेठ की सेठानी को पता चला कि चंद्रगुप्त को लेने दिल्ली से सेठ ताराचंद आये हैं तो बहुत प्रसन्न हूई और ताराचंद के स्वागत में क्या कहने लगी-

जब सुणी थी सेठ के आवण की,
सारे बदन की रुम खड़ी होगी।।टेक।।

सुण नौकर-चाकर का बोल,
माचग्यी ताराचंद आवण की रौल,
झोल पड़ण लगी दामण की,
हथणी ज्यूं हूम खड़ी होगी।।

दान-पुन्न मै ना कदे मुट्ठी बोची,
ब्होत दिन मीन की तरियां लोची,
जब सोची आंख मिलावण की,
सजी पहरकै टूम खड़ी होगी।।

यो सुख परमेश्वर नै करया,
कदे का भाग उदय हुआ मरा,
धरा गिरवी पूत छूटावण की,
होते-ऐ मालूम खड़ी होगी।।

लख्मीचंद चित भग्ति म्य रमैं,
फिर दिल एक ठिकाणें जमै,
समय सधी बधाई गावण की,
मची शहर मै धूम खड़ी होगी।।

जब करोड़ी-मरोड़ी की बहू को भी पता चल गया तो चंद्रगुप्त के पास आ गई और सब इकट्ठे होने पर चंद्रगुप्त हाथ जोड़कर सबके सामने क्या कहता है-

बालकपण म्य जै खोट बणया,
माफ करो मैं घर नै जा सूं।।टेक।।

मनै तुम मात-पिता तै भी प्यारे,
जीवता गुण भूलू ना थारे,
तुम सारे बड़े मैं बालक एक जणा,
सिर पै हाथ धरों म्य घर नै जा सूं।।

बीतैगा कर्म लिख्या लिया जिसा,
आवण का मोका सधै इसा,
चलती बर किसा घूंघट तणयां,
तुम प्रेम भरो म्य घर नै जा सूं।।

आंसू पूछो करकै पल्ला,
राम करियो थारा भला,
थूक दियो गिल्ला जो कहया-सुणया,
तुम क्यां तै डरो मैं घर नै जा सूं।।

लख्मीचंद चरण गुरू के लहैगा,
सेवा करकै आनंद सहैगा,
मेरै याद रहैगा थारा लाड घणा,
इब क्यूकर-ऐ सरो मै घर नै जा सूं।।

अब चन्द्रगुप्त को उसकी दोनों भाभी क्या कहने लगी-

कहे सुणें का थूक दे गिल्ला,
जब तबियत एक सार मिलैगी,
म्हारी राम-राम कहिए सासू नै,
जो तनै करकै प्यार मिलैगी।।टेक।।

आज तलक तै वैं बिछड़े फिरैं थे,
मेहनत करकै पेट भरैं थे,
जो थारे तै बैर करैं थे,
वा दुनियां आज्ञाकार मिलैगी।।

उस दिन बुरा मानग्या मेरा,
मैं तेरा चाहूं थी बसाणा डेरा,
सुण देवर ब्याह हो लिया तेरा,
घरां सोला राशी नार मिलेगी।।

कहूं सूं पायां मैं सिर धरकै,
राम-रमी दिये प्रेम मैं भरकै,
बेटे तै प्यार कईं बर करकै,
जननी सौ-सौ बार मिलैगी।।

लखमीचन्द हिए का पात्थर,
हो रहया समझण जोगा चातर,
राम करै इस जूड़े खातर,
पहरण आली त्यार मिलेगी।।

अब मनसा सेठ की सेठानी क्या कहती है-

जै चन्द्रगुप्त नै भेजै सै तो,
धर्म की ओड़ निंघाणा चाहिए,
बदली थी ताराचंद नै पगड़ी,
उसका प्रण निभाणा चाहिए।।टेक।।

पिया बीर हो सै हिए की पात्थर,
तुम खुद अकलबंद घणे चातर,
चन्द्रगुप्त के मिलण की खातिर,
महीने भीतर जाणा चाहिए,
मै भी मिलूगी दयावती तै,
फेर गंगा जी नाहणा चाहिए।।

न्यू तै म्हारे सब बोल लहै था,
सब दुख-सुख नै आप सहै था,
हम दोनुआ नै माँ-बाप कहै था,
चलते का लाड लडाणा चाहिए,
तिहाई का धन दे बेटे नै,
आच्छी तरिया देकै खंदाणा चाहिए।।

फेर मिलैगा के मुंह लेकै,
इसनै द्रव कमाया दुख खेकै,
कूछ पुरुषार्थ मै पैसा देकै,
धर्म मै हाथ बटाणा चाहिए,
जै साझी बणकै करै कमाई तै,
माल बांटकै खाणा चाहिए।।

कहै लख्मीचन्द रस धार घूंटणा,
बिना सतगुरु ना फंद छूटणां,
घरबारी नै माल लुटणां,
हरगिज नहीं बिराणा चाहिए,
औरां का भलां मनावण खात्तर,
घर-गृहस्थी का बाणा चाहिए।।

अब मनसा सेठ की सेठानी चलते समय चन्द्रगुप्त से और क्या कहती है-

दयावती बाहण के आगै,
घणी सफाई मतन्या करिये,
गैरा की तरियां राख्यां हो तै,
मेरी बुराई मतन्या करिये।।टेक।।

बात कोए अनसहणी हो तै,
पेट के म्हा ना रहणी हो तै,
जै सारी खोलकै कहणी हो तै,
फेर भेद छुपाई मतन्या करिये।।

मै के भेज्या चाहूं इस धाम तै,
उड़ै भी शर्म आवै सै गाम तै,
जै चालज्या काम तेरे नाम तै,
फेर बुरी लिखाई मतन्या करिये।।

थारे मां-बेटे की याद भूल कै,
लाड करया दिल नै बांध भूल कै,
रे! इस घर की मर्याद भूल कै,
लोग हंसाई मतन्या करिये।।

लख्मीचन्द छन्द धर दे तै,
मेरे जै परमार्थ मै सिर दे तै,
यो राम भलां तेरा कर दे तै,
मां की आई मतन्या करिये।।

मनसा सेठ के परिवार से विदाई पाकर सेठ ताराचंद अपणे पुत्र के साथ दिल्ली की तरफ चल पड़े। चलते-चलते रास्ते मे वहीं हरनन्दी आ जाती है। जैसे दोनों नदी के किनारे पर पंहूचे तो देखते हैं कि जो 200 रुपए सेठ ताराचंद के लापता हो गए थे। वे ज्यों के त्यों पड़े मिलते है। अब सेठ ताराचंद पैसे उठाकर क्या कहता है-

माया के फंदे मै फसकै,
यो सारा संसार मोहया जा सै,
धरती पै कित रहै ठिकाणा,
जब गरीब का धन खोया जा सै।।टेक।।

हम बेटे थे वैश्य वर्ण के,
ये के हाथ टहल करण के,
जब लाले पड़ज्यां पेट भरण के,
फेर के सुख तै सोया जा सै।।

ये दिन आ लिए मरते-मरते,
टोटे के मै फिरते-फिरते,
बारहा वर्ष होए टल्ला करते,
वृथा थूक बिलोया जा सै।।

उस दिन चोट कालजै लागी,
मिचगी आंख अंधेरी छागी,
आज बारा वर्ष मै न्यौली पागी,
न्यूं नफे म्य टोटा रोया जा सै।।

श्री लख्मीचंद कहै के गल होगा,
जै किसे मै समझण का बल होगा,
पुन्न करोगे तै पुन्य का फल होगा,
ना पाप का बोझा ढोया जा सै।।

अब धर्ममालकी अपने पति का आरता करती है और दोनों की आपस में कैसे बातचीत होती है-

आरता करा ले पिया उरै नै आ,
तेरी धर्ममालकी हूर खड़ी उरै नै लखा।।टेक।।

चन्द्रगुप्त:-
कहूं धर्म तै टोटे, ना साहूकारी मै छोड़ी,
मै जाणूं सूं हूर, जिस बिमारी मै छोड़ी,
मै बारा साल गहणै था, लाचारी मै छोडी,
किसके घर मै बिठाऊ, डर भारी मै छोड़ी,
ना तै कौण छोडदे इस तरियां, तू सोचकै बता।।

धर्ममालकी:-
प्रेम की थी डोरी, अपणे हाथ ना राखी,
जिसे प्रेम तै ब्याही थी, वा बात ना राखी,
मर्दपणा भी के तेरा, तनै जात ना राखी,
आखिर नै तेरी ब्याही थी, तैनै साथ ना राखी
टापू के मै छोड़ दई तै, देखी ना जगा।।

चन्द्रगुप्त:-
दो चीजां का लोभ करया, न्यूं ब्याही हूर मनै,
फेर जती-सती के धर्म की, दीखी तबाही हूर मनै,
आगै अपणा घर ना था, न्यूं ना जगाई हूर मनै,
फिर अपणै तन कै लगती, दीखी स्याही हूर मनै,
मनै दुख आगै दीखै था, मेरै लागी ना भका।।

धर्ममालकी:-
मनै टापू के म्हां रहकै, सबर का मुक्का मार लिया,
फिर दिल्ली आकै जमना जी पै, धूणा डार लिया,
फिर पिता जी पहूंच गये, देख बख्त विचार लिया,
तेरे छूटावण की विधि का मनै, ढंग इकरार लिया,
मनै सोने की देई कांगणी, कहां जा पुत्र नै छूटा।।

चन्द्रगुप्त:-
आरता करा लिया गोरी, धन बोलते नै थाम,
दुनियां के मै अपणा, जणां दिया तनै नाम,
मै माफी मांगू तेरे तै, सै मेरा खोट तमाम,
पाछली बातां नै भूलज्या, कर आगे का इन्तजाम,
लख्मीचंद कहै खतावार रहया, शीश नै झुका।।

अब सेठ ताराचन्द ने अपने पुत्र को पिछला सब हाल कह सुनाया । चन्द्रगुप्त भी समझदार हो चुका था । हर एक बात को समझाता था । फिर ताराचंद ने अपने जीवन की सारी कहानी सुनाकर क्या हिदायत देता है-

के टोटे का रोवणां, के नफे की बात,
दुनियां के मैं दोनू चीज, चलैं जिन्दगी के साथ।।टेक।।

बेटा तनै दूध और नीर छणा लिया,
मात-पिता का भगत जणा लिया,
छाती के म्ह चिन्ह बणा लिया, खेकै भृगु केसी की लात।।

मेरी बात हिए में लिखिए,
मतन्या नजर पाप की तकिये,
चन्द्रगुप्त डाट कै रखिए, यो मन मूर्ख कमजात।।

और कोए सौदा मेरे पास ना,
यो मन मरते ही मिटे वासना,
एक पैर धरै एक की आस ना, रहै सदा उमर ना गात।।

लखमीचन्द सोच दिल अन्दर,
दान-पुन्न बिन के शोभा घर-मन्दिर,
दुनियां मै तै गए सिकन्दर, ले कै खाली हाथ।।

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