पं. जगन्नाथ समचाना
पं जगन्नाथ का जन्म 24 जुलाई, सन् 1939 को गांव समचाना, जिला रोहतक हरियाणा में हुआ। यह तीजों के त्योहार का दिन था। जिस समय तीज मनाई जा रही थी, औरतें पींघ झूल रही थी और गीत गा रही थी। एक तरह से जब उन्होने इस धरा पर अपने नन्हे कदम रखे तो प्रकृति का पूरा वातावरण संगीतमय था। अतः यही कारण है कि उनका संगीत से लगाव बचपन से ही रहा।
पं जगन्नाथ की प्रथम शिक्षा तो उनके अपने घर से ही प्राप्त हुई क्योंकि इनके पूर्वज सभी विद्वान पंडित थे। संस्कृत की विद्या भी इन्हें घर से प्राप्त हुई। इनके पास रहने, इनके सानिध्य मात्र से ही संस्कृत भाषा का काफी अनुभव हो चुका था। केवल चार साल की उम्र में इन्होने, अपने पिताश्री की अनुपस्थिति में एक शादी समारोह में फेरे करवा दिये थे। उस समय स्कूली शिक्षा में इनकी रूचि नहीं थी, क्योंकि इनके ही घर में पाठशाला थी और इनके दादा जी विद्यार्थियों को पढ़ाया करते थे।
उनको छह साल की उम्र में परिजनों ने गांव के ही प्राथमिक स्कूल में प्रारम्भिक शिक्षा हेतु भेजा, जिस प्रथम गुरू ने इनका नाम रजिस्टर में लिखा था, वो इनके ही गांव के पंडित रामभगत जी थे। ये उनको ही अपना सतगुरु मान कर उनके चरणों में रहने लगे। जब स्कूल में शनिवार के दिन सांस्कृतिक कार्यक्रम होता तो गुरू जी इन्हें एक भजन सुनाने का अवसर जरूर देते। एक दिन उस समय के सिंचाई मंत्री चौ. रणबीर सिंह, जो कि स्वतन्त्राता सेनानी भी थे, वह इनके स्कूल में आए। उनके आगमन पर इन्होने एक स्वागत् गान खुद ही बनाया और सुना दिया। उस दिन के बाद सदैव गुरू जी ने उन्हें उत्साहित किया, बस यहीं से लिखने का क्रम शुरू हुआ।
पं जगन्नाथ पंडित लखमी चंद की कविताई से ही ज्यादा प्रभावित हुये। इन्होने अपनी कविता कम गाई, परन्तु पंडित लखमीचन्द के बनाए हुए सभी सांग, भजनों को तरीके एवं मर्यादा से घड़वे-बैंजों पर गाया है। वे कभी भी रागनियों की तरफ प्रवृत नहीं हुए और न ही कभी किसी प्रतियोगिता में भाग लिया। इन्होने तो सभी धार्मिक एवं ऐतिहासिक रचनाओं का सृजन व गायन किया है। उनके द्वारा की हुयी रचनाओं का पूरा शब्द कर्म संभालना मुश्किल है, जो बचपन में लिखा-वह जवानी में गुम हो गया और जो जवानी में लिखा वो बुढ़ापे में गुम हो गया।
पं जगन्नाथ के अनुसार वर्तमान परिदृश्य में हरियाणवी संगीत काफी उन्नति पर है। जिसको आप बार-बार रागनी नाम से सम्बोधित कर रहे हैं-वह रागनी नहीं है, यह केवल हरियाणवी संगीत है, जिसको पहले समय में अश्लील समझते थे, वही किस्से वही कविता, जिसको आज सब सुनना पसन्द करते हैं। उनके कथनानुसार घड़ा-बैंजू तो मेरे जन्म से पहले भी प्रचलन में थे, परन्तु इनका प्रयोग करने वालों को अश्लील समझा जाता था। क्योंकि ज्यादातर आवारा किस्म के लोग खेतों में कोल्हूवों में इन्हें बजाया करते थे, गांव बस्ती में इस साज़ को बजाने की मनाही होती थी। मैंने सन् 1970 में घड़ा-बैंजू को अपनाया और काफी विरोध के बावजूद भी मैंने इस साज़ को नहीं छोड़ा। कुछ नये प्रयोग और धार्मिक, ऐतिहासिक रचनाओं का इन वाद्यों के साथ तालमेल, इनकी जन स्वीकृति का कारण बना और आहिस्ता-आहिस्ता सारे समाज ने ही इस साज को स्वीकार कर लिया। यहां तक कि आकाशवाणी दिल्ली व दिल्ली दूरदर्शन पर हरियाणा की तरफ से मैंने घड़े-बैंजू पर सबसे पहले गाना गाया, जिसे दूरदर्शन ने भी सहर्ष स्वीकार किया। बार-बार मेरे कार्यक्रम दिल्ली दूरदर्शन से घड़े-बैंजू पर आते रहे, फिर जनता ने भी स्वीकार कर लिये।
पं जगन्नाथ को हरियाणा सरकार ने अनेक बार सम्मानित किया। चौ. भूपेन्द्र सिंह हुड्डा सहित पूर्व मुख्यमंत्रियों, चौ. बंशीलाल, चौ. देवीलाल, चौ. ओमप्रकाश चौटाला के कार्यकाल में एंव श्री बलराम जाखड़, चौ अजय चौटाला, श्री दीपेन्द्र हुड्डा के कर कमलों से भी इन्हें सम्मानित होने का अवसर मिला है। एशियाड 82 के समय एक एल. आई.जी. फलैट अशोक विहार दिल्ली में, इनको कार्यस्थल डी.डी.ए. ने सम्मान स्वरूप दिया। श्री साहब वर्मा, तत्कालीन मुख्यमंत्री दिल्ली सरकार ने अपने कार्यकाल में दिल्ली सरकार की तरफ से तीन बार सम्मानित किया। श्री गुलाब सिंह सहरावत, उपायुक्त रोहतक ने एक किलो सौ ग्राम चांदी के डोगे से सम्मानित किया। गांव धाराडू, भिवानी की पंचायत ने सोने का तमगा देकर सम्मानित किया। गांव बापौड़ा, भिवानी की पंचायत ने 5100 रूपये व सोने की अंगूठी से दो बार सम्मानित किया। इसके अतिरिक्त भी असंख्य बार सम्मान मिले हैं। उल्लेखनीय बात यह भी है कि इनको अपने चाहने वालों और संगीत के कार्यक्रमों से बहुत सम्मान व स्नेह मिला है। अक्सर जहां भी किसी संगीत के कार्यक्रम में ये उपस्थित होते तो पहले इनका सम्मान करते, उसके बाद कार्यक्रम शुरू करते।
10 अगस्त 2018 को वे इस नश्वर संसार को छोड़ कर सदा के लिए परमपिता की शरण में चले गये। मानव मूल्यों के अपसरण को अपने इस शब्द कर्म में उन्होंने करीब चार दशक पहले ही महसूस करा दिया था जो वर्तमान परिदृश्य में भी प्रासंगिक है-
बेशर्मी छाग्यी सारे कै, बिगड़या सबका दीन,
आज मैं किस पै, करूं रै यकिन।।
झुठे तेरे बाट तराजू, या झुठी खोल्यी तनै दुकान
झुठा सौदा बेचण लाग्या, नहीं असल का नाम निशान
झुठा बोल्लै कमती तोल्लै, आये गयां के काटै कान
झुठा लेखा जोखा देख्या, ये झुठी देख्यी तेरी बही
झुठे तू पकवान बणावै, सब झुठे बेच्चै दुध दही
झुठा लेवा झुठा देवा, और बता के कसर रही
खानपान पहरान बदलगे, न्यू बुद्धि हुई मलीन।।
झुठी यारी यार भी झुठे, झुठा करते कार व्यवहार
झुठे रिश्ते नाते रहग्ये, लोग दिखावा रहग्या प्यार
बीर मर्द का, मर्द बीर नै, कोए से नै ना ऐतबार
माया के नशे म्हं चूर, फिरते हैं अभिमानी बोहत
बुगले आला दां राख्खैं सै, इसे देख्ये ज्ञानी बोहत
लेण देण नै कुछ ना धोरै, ऐसे देख्ये दानी बोहत
बड़े-बड़या नै मोह ले यैं तिन्नूं, जर जोरू और जमीन।।
दीखणे म्हं धर्म धारी, काम है चंडाल का
सिंह रूपी वस्त्र धारै, काम नहीं शाल का
पाखण्ड का सहारा लिया, हुकम कल्लु काल का
पलटया है जमाना, होया धर्म कर्म का बिल्कुल अंत
बीज तै बदल गये, क्याहें म्हं ना रहया तंत
वेदपाठी पंडत कोन्या, टोहे तै ना मिलते संत
कायर-छत्री निर्धन-बणिया, ब्राहमण विद्या हीन।।
सत् पुरूषां की मर होग्यी, यो किसा जमाना आग्या रै
वेदव्यास जी कहया करैं थे, वोहे रकाना आग्या रै
गुरू रामभगत की कृपा तै, मन्नैं कुछ कुछ गाणा आग्या रै
बालकपण म्हं मौज उड़ाई, खेल्ले खाये बोहत घणे
गाया और बजाया, देख्खे मेले ठेले बोहत घणे
झुठे यार भतेरे देख्खे, झुठे चेल्ले बोहत घणे
जगन्नाथ कहै सत के चेल्ले, ये हों सै दो या तीन।।