बाजे भगत
बाजेराम, जिसे जनमानस बाजे भगत कहकर पुकारता है, का जन्म जिला सोनीपत के गांव सिसाणा में 16 जुलाई, 1898 ( विक्रमी सम्वत 1955 में श्रावण मास की शिवरात्रि ) को हुआ। उनके पिता का नाम बदलू राम व माता का नाम बादमो देवी था। चार बहन-भाईयो में बाजेराम तीसरे नंबर पे थे, जिसमे उनकी बड़ी बहन हरकौर, भाई शिवधन व छोटी बहन धन्नो थी। उनका विवाह कासंडी निवासी श्री सुंडूराम की पुत्री पण्मेश्वरी देवी से हुआ था, जिनसे उन्हें चार सन्तानो का पिता बनाने का गौरव प्राप्त हुआ। उनका व्यक्तित्व बहुत आकर्षक एवमं कंठ अत्यंत मधुर था। उनकी सुरीली आवाज़ के लिए खा भी जाता है-
बाजे कैसी बोली कोन्या
बाजे भगत नियमित रूप से स्कूल पढ़ने नहीं गए थे। अपनी थोड़ी बहुत पढ़ाई उन्होंने स्वयं एवं अपने माता-पिता के प्रयास से संपन्न की। उन्होंने वर्णमाला की शिक्षा एक अध्यापक से प्राप्त की। हिंदी भाषा का प्रारंभिक ज्ञान तथा देवनागरी लिपि का ज्ञान उन्होंने ईश्वर दत्त शास्त्री के सत्संग से प्राप्त किया। इन्ही के साथ रह कर बाजे भगत ने श्रीमद्भगवतगीता, महाभारत, मनुसमृति एवं उपनिषदों के अनेकों श्लोको को कंठस्थ कर लिया था। इन्ही शास्त्री जी के संसर्ग से उनमे कविता लिखने और गाने-बजाने के संस्कार जागृत हुए। अपने भीतर छुपे हुए ज्ञान को बाहर प्रकट करने के लिए, अपनी गायन, वादन एवं मंचन शैली को प्रभावशाली एवं चमत्कारी बनाने के लिए उनको एक गुरु की आवश्यकता थी। वे उस समय के एकमात्र प्रसिद्ध सांगी स्वामी हरदेवा के सांग कला की बारीकियां सीखने के लिए गए। उनको अपना गुरु धारण करके बाजे भगत ने उनके सामने स्वयं को पूरी तरह समर्पित कर दिया। इसी समर्पण के कारण वे एक आदर्श शिष्य कहलाये। उनका भारतीय सनातन भिक्षा में पूर्ण विश्वास था कि गुरु मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति को गुणवान बना सकता है। बाजे भगत ने गुरु के बारे में लिखा भी है-
मूढ़ तै बणा दिया इंसान, उसका करणा चाहिए गुणगान
कह बाजेराम ध्यान गुरु के चरना मैं ला ले।
सांगो में अभिनय के अलावा बाजेराम सामाजिक कार्यो में भी बहुत रूचि लेते थे। भक्ति और धर्म में आस्था रखते हुए उन्होंने दान-पुण्य के कार्यो को भी बड़े मनोयोग से किया। और शायद यही कारन भी रहा की वो बाजे भगत के नाम से विख्यात हुए। उन्होंने लोकगायक और सांगी के रूप में लोक भावनाओं, आकांक्षाओं और अभिलाषाओं को ह्रदयस्पार्शी भाषा प्रदान की। जनसाधारण के हर्ष-शोक, पीड़ाओं-विवशताओं व संवेदनाओं को छंद व गीतों में ढालकर मधुर कण्ठ से गाया तो श्रोतावर्ग मन्त्रवमुग्धा हो उठा। उनके द्वारा रचित लोकगीत, लोकधुनें और लोकनाट्य आज भी संस्कृति प्रेमियों के ह्रदय पर राज करते हैं। उनकी भाषा में माधुर्य और कोमलता के साथ-साथ हरयाणवी लोक भाषा का अभिनव रूप देखने को मिलता है। बाजे भगत ने लोकनाट्य परम्परा की न केवल नींव मजबूत की अपितु इनका पोषण व संवर्धन करते हुए लोक साहित्य का एक अथाह भण्डार भी छोड़ा।
बाजे भगत अपनी रचनाओं में कहीं भी अश्लील शब्दों का प्रयोग नहीं करते थे। इस बात का जिक्र उन्होंने स्वयं अपनी रागनियो में किया है -
कह बाजे राम गुरु धोरै सीखी बात बणाणी
चाहे बाब्बू-बेटी कट्ठे सुणो, इसी रागनी गाणी।
उन्होंने 15 के करीब सांगों की रचना की। सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र, गोपीचंद, पूर्णमल, अजीत सिंह-राजबाला, नल-दमयंती, शकुंतला-दुष्यंत, कृष्ण जन्म, सरवर-नीर, जानी चोर, पद्मावत, हीरामल-जमाल, रघुबीर-धर्मकौर आदि उनके कुछ प्रमुख सांग हैं।
बाजे भगत की मृत्यु से कुछ दिन पूर्व गढ़ी निवासी टेका ने उनसे गढ़ी में सांग करने को कहा। उन दिनों भगत जी ने गांव आसन में सांग करने की साई ली हुयी थी। टेका ने भगत जी को अधिक रुपयों का लालच भी दिया। परन्तु भगत जी अपने वचन के प्रति प्रतिबद्ध थे। उन्होंने आसन के बाद गढ़ी में सांग करने का आश्वासन दे कर टेका को मना कर दिया। टेका ने इस बात को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर इसे अपना अपमान समझा तथा बाजे भगत की हत्या करने की ठान ली। इसी आवेग में एक रात उसने सोते हुए बाजे भगत पर छुरे से प्रहार कर दिया। छुरा उनके पेट के ऊपरी भाग से ले कर जंघा को पूरी तरह से चीरता हुआ चला गया। गंभीर घायल अवस्था में भी अपने होश कायम रखते हुए अपने हमलावर को उन्होंने तब तक जकड कर रखा जब तक उसको पहचान नहीं गए। पहचाहनाने के बाद बाजे भगत ने उसे ये कहते हुए उसे वहां से भगा दिया की तुम यहाँ से दूर चले जाओ अन्यथा मेरे परिवारजन एवं सहयोगी तुम्हे मौत के घाट उतार देंगे। बाजे भगत की मृत्यु से ठीक 55 साल पहले ऐसा ही उदहारण महान समाज सुधारक, राष्ट्र प्रणेता एवं दार्शनिक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने प्रस्तुत किया था जब उन्होंने अपने हत्यारे हो रुपये दे कर भगा दिया था ताकि उनके अनुयायी एवं शिष्य बदले की भावना के वश हो कर उसका वध न कर दें।
गंभीर घायल अवस्था में बाजे भगत को सिविल अस्पताल रोहतक लाया गया। यहाँ उनके परिवार के सदस्यों, मित्रों, श्रद्धालुओ तथा पुलिस अधिकारियो द्वारा आक्रमणकारी का नाम बताने के लिए दबाव डाला गया। तत्कालीन पुलिस अधीक्षक के शब्द थे- ”भगत जी, एक बार मुझे अपने हत्यारे का नाम बता दो, मैं उसे इस क्रूर अपराध का मज़ा चखा दूंगा”। भगत जी मुस्कुरा कर बोले- “साहब, आप जैसा उच्च अधिकारी जब मुझे भगत जी कह रहा है तो मेरा भला कौन दुश्मन हो सकता हैं ? मैं कुछ नहीं जानता”। इस प्रकार अपने हत्यारे को क्षमा करके उन्होंने अपने भगत के स्वरूप को सिद्ध कर दिया। ऐसा करके वे सच्चे अर्थो में संत एवं महाऋषियों की श्रेणी में आ गए। 26 फरवरी, 1939 (फाल्गुन चतुर्दशी महाशिवरात्रि विकर्मी सम्वत 1993) को उन्होंने इस नश्वर संसार से विदा ली।