पं॰ मांगे राम
पंडित मांगे राम का जन्म सिसाना (रोहतक) जो की अब सोनीपत जिले के अंतर्गत आता है, में 1905 हुआ। इनके पिता का नाम अमर सिंह व माता का नाम धरमो देवी था। पंडित मांगे राम के चार भाई–टीकाराम, हुकमचंद चंदरभान और रामचंद्र तथा दो बहने-नौरंगदे (गोंधा) और चन्द्रपति थी। पंडित मांगे राम अपने भाई बहनो में सबसे बड़े थे।
मांगे राम के नाना पंडित उदमीराम गॉंव पाणची (सोनीपत) अच्छी जमीन-जायदाद के मालिक थे। परन्तु उनकी कोई संतान नहीं थी। इसलिए नाना ने पंडित मांगे राम को गोद ले लिया और वे पाणची में रहने लगे।
मांगे राम की स्कूली शिक्षा नहीं हुयी परन्तु वे थोड़ा बहुत पढ़ना-लिखना जानते थे। पंडित उदमीराम धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति थे और उनकी रूचि भजन शब्दों में ज्यादा थी। सत्संग-कीर्तन करना पंडित उदमीराम का नित्य का कार्य था। नाना की इसी प्रवृति का प्रभाव मांगे राम पर पड़ा और उनका रुझान गीत-संगीत की तरफ होता चला गया।
17-18 वर्ष की बाल्यावस्था में ही पंडित मांगे राम का विवाह खरहर (झज्झर) निवासी पंडित नौनंद की सुपुत्री रामेती से हुआ। श्रीमति रामेती ने दो कन्याओ-कृष्णा व फूलवती को जन्म दिया। घर में पुत्र की कमी को पूरा करने के लिए पंडित मांगे राम ने 42-43 वर्ष की आयु में गॉंव अकेहड़ी मदनपुर (झज्झर) निवासी पंडित चन्दगी राम की सुपुत्री पिस्तो देवी के साथ दूसरी शादी की। श्रीमति पिस्तो देवी ने पांच पुत्र-नौरत्न, ओमप्रकाश, मौसम, सुभाष व राजू व तीन पुत्रियों-सुकन्या, कमलेश व इन्द्रा को जन्म दिया।
लगभग 25 वर्ष की आयु में पंडित मांगे राम ने सांग मण्डली में सम्मलित होने की इच्छा प्रकट की, किन्तु घर वालो ने अनुमति नहीं दी। अनुमति न देने का कारण यह था की उस समय सांग मण्डली को समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता था। पंडित जी को एक युक्ति सूझी। वे घर वालो से कहने लगे-‘मनै मोटर चलाणी सीखा दयो ना तो मै सांग में रलूँगा’। घर वाले दबाव में आ गए और उन्होंने पंडित जी को मोटर चलाने का प्रक्षिशण दिलवा दिया। प्रक्षिशण लेने के बाद कहने लगे-‘मेरे तहिं मोटर खरीद दयौ नहीं तो सांगी बनूँगा’। घर वालो ने सांग में शामिल होने के भय से पंडित मांगे राम को मोटर खरीद कर दे दी। बस फिर क्या था पंडित जी मोटर चलने लगे और जहा भी पंडित लखमीचंद का सांग होता वही पहुँच जाते। विक्रमी सम्वत 1990 (सन 1933) में घरवालों की इच्छा के विपरीत पंडित मांगे राम सांग मण्डली में शामिल हो गए और उस समय के प्रसिद्ध सांगी, बल्कि सांग जगत की सबसे महान विभूति पंडित लख्मीचंद को विधिवत अपना गुरु बना लिया।
सांगी जीवन में पदार्पण करते समय मार्ग में आयी बाधाओं का जिक्र करते हुए पंडित मांगे राम कहते हैं –
पहलम झटके रल्या सांग में घर के आये छौ मै
फेर दुबारा घर तै चल्या लिया कलाहवड़ टौ मै
सिरसा के मा सांग करे थे नबिया आली रो मै
गुरु लख्मीचंद की मेहर फिरी मैंने करगे दर्ज़े दो मै
मांगे राम ने ड्राइवर से सांगी बनाने के तथ्य को स्वयं अपनी रचनाओं में इस प्रकार कहा है–
मोटर चलायी फेर सांग सिख लिया लख्मीचंद के डेरे मै
और
मांगे राम ने लख्मीचंद की करली ताबेदारी
मोटर चालयी फेर सांग सिख लिया
संग में घुम्या करती लारी
पंडित लख्मीचंद बड़े कठोर स्वभाव के थे। उनसे मंच पर किसी तरह की कोताही बर्दाश्त नहीं होती थी। हाथ में एक कामची भी रखते थे। एक दिन किसी गलती पर उन्होंने पंडित मांगे राम को डांट दिया। अब गुरु कठोर है तो शिष्य भी कुछ कम स्वाभिमानी नहीं था। उन्होंने पंडित लख्मीचंद से अलग हो खुद की मंडली बना ली। कहा तो ये भी जाता है शुरुआत में तो उन्होंने लख्मीचंद की छाप नहीं लगाने का फैसला किया था। लेकिन उनके करीबी बताते हैं कि कई वर्ष तक वे निःसंतान रहे फिर उन्होंनें गुरु की छाप अपने भजन-रागनियों में लगानी शुरु की तो उनके आंगन में किलकारी गूंजी। इसके बाद तो पंडित जी ने एक भी रागनी एक भी किस्सा एक भी भजन एसा नहीं लिखा और गाया जिसमें पंडित लख्मीचंद का नाम ना लिया गया हो।
पंडित मांगे राम की शख्सियत कमाल की थी वे शरीर से तो बलिष्ठ थे ही साथ ही उनकी आवाज को भी लोग दूर दूर से सुनने के लिए आते थे। पंडित मांगे राम ने लिखा भी गजब है। उनकी एक एक बात आज भी समाज को मार्गदर्शन देने का काम करती है। अमीर घराने से होने के कारण वे पूरी शान-शौकत से रहते थे। सिर पर तुर्रेदार कुल्ले वाला साफा, बदन पर धोती-कुरता जैकेट व कभी-कभी बंद गले का कोट भी पहनते थे। प्राय: पिस्तौल से सुसज्जित हो कर सांग स्थल पर पहुँचते थे।
सन 1962 में पंडित मांगे राम ने ‘गंधर्व सभा’ का गठन किया जिसमे उस समय के पांच प्रमुख सांगी-पंडित मांगे राम, पंडित सुल्तान सिंह, धनपत सिंह, रामकिशन व्यास और चन्द्रलाल उर्फ़ चन्द्रबादी शामिल थे। ‘गंधर्व सभा’ ने हरियाणा ने कई स्थानों पर अपने सांस्कर्तिक कार्यकर्म पेश किये। सांग-संगीत प्रेम हरयाणवी जनता ने भी ‘गंधर्व सभा’ द्वारा प्रस्तुत कार्यकर्मो को खूब पसंद किया।
पंडित मांगे राम की खास बात ये भी है कि उनके भजन रागनियों की धुनों में लोकगीतों की महक आती है। “गोकुल गढ तै री वा चाली गुजरिया हो राम” हो या “फिर भरण गई थी नीर”। हरियाणवी जनमानस के बारे में व रीति रिवाजों के बारे में उनकी गहरी समझ थी। नोरत्न किस्से मे जब नौरत्न शादी कर लौटने लगता है और पती पत्नी जब जहाज में सवार होते हैं तो नौरत्न अपनी पत्नी से पूछता है-
कोण थी वा फेरयां पर कै औली सौली जा थी
उठै था सुसाटा जणूं नई गोली जा थी
इतने ठेठ अंदाज में अभिव्यक्ति पंडित मांगेराम ही कर सकते थे।इसमें उनका कोई सानी नहीं है। इसी किस्से की एक और रागनी जो बहुत प्रसिद्द हुई, आज भी है… और हमेशा रहेगी…
जहाज के म्हां बैठ गोरी राम रटकै, ओढणा संगवाले तेरा पल्ला लटकै
पंडित जी ने ज्ञान की बातें या कहें धार्मिक उदाहरण भी लोगों के सामने अच्छे से पेश किए हैं। अन्याय को सहन ना करने की आवाज भी पंडित मांगे राम ने उठाई भले ही वह भाभी की सीख मानकर एक बड़े भाई ने अपने छोटे भाई के साथ किया हो। पिंगला भरथरी के किस्से की ये फेमस रागनी है। कई लोग तो इसे आज भी महिलाओं के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं-
आज का बोल्या याद राखिये विक्रम भाई का
धरती पर तै खो देगा तनै बहम लुगाई का
धरती पर तै खो दे गा तनै बहम लुगाई का
ये बात विशेष परिस्थिति में किस्से की खलनायिका के लिए कही गई है। लेकिन इसे हमेशा से नकारात्मक रूप से महिलाओं के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता रहा है। नजरिये को महिला विरोधी बनाने में इस तरह के गीतों की भूमिका पर शोध भी किया जा सकता है। इसके अलावा पंडित जी की एक खास बात और है नायिकाओं के रुप रंग नैन नक्स की तारीफ तो लगभग सभी सांगियों ने की लेकिन एक पुरुष चरित्र के श्रृंगार का वर्णन जैसा पंडित मांगे राम ने किया वैसे कहीं और नहीं मिलता उदाहरण हीर रांझा किस्से में मिल जायेगा जब कवि कहते हैं-
बाबा जी तेरी स्यान पै बेमाता चाळा करगी
पंडित जी ने मानवीय संवेदनाओं को जिस रुप में पेश किया वे काल्पनिक नहीं बल्कि जीवन से जुड़ी लगती हैं। एक यथार्थ उनकी रचनाओं में देखने को मिलता है, लेकिन जहां कल्पना करने की या सपने गढने की बात आती तो उसमें भी पंडित जी माहिर थे।
सन 1960 मे पंडित जी ने गंगा स्तुति विषयक एक रागनी बनायीं थी, जिसकी अंतिम कली में कहा गया है-
जा मुक्ति की सीधी राही तेरे बीच नहाने आला
पणाची मै बास करता एक मामूली सा गाने आला
एक दिन तेरे बीच गंगे यो मांगे राम आने आला
रल ज्यागा तेरे रेत मै कित टोहवेगा संसार।।
अदभुत संयोग की बात है कि सात वर्ष बाद 16 नवम्बर 1967 को गंगा स्नान के पावन पर्व पर पंडित मांगे राम गढ़-मुक्तेशवर में गंगा तट पर स्वर्ग सिधार गए। अपने जीवनकाल में उन्होंने 2 दर्जन से अधिक सांगो की रचना की। इसके अलावा उन्होंने बहुत से मुक्तक भजन व उपदेशक भजनो की भी रचना की। पंडित मांगे राम के निधन के साथ ही मात्र व्यक्ति अथवा सांगी का ही नहीं अपितु सांग इतिहास के एक महत्वपूर्ण युग का अंत हो गया।
पं. मांगेराम द्वारा रचित सांग, किस्से व भजन
अजीत सिंह-राजबाला
कृष्ण जन्म
कृष्ण-सुदामा
खंडेराव परी
चन्द्रहास
चापसिंह-सोमवती
चित्र मुकुट
जयमल-फत्ता
ध्रुव भगत
नर सुल्तान-निहाल दे
नल-दमयन्ती
नौरत्न
पिंगला-भरथरी
पूर्णमल
फूल सिंह-नौटंकी
भगत सिंह
महात्मा बुध
मालदे का आरता
मीराबाई
राजा गोपीचंद
राजा मोरध्वज
रुक्मण का ब्याह
रूप-बसंत
लैला-मजनू
वीर हकीकत राय
शकुन्तला-दुष्यंत
शिवजी का ब्याह
सति विपोला
सति सुकन्या
सत्यवान-सावित्री
समरसिंह-किरणमयी
सरवर-नीर
सीता हरण (रामायण)
हंसबाला-राजपाल
हीर-राँझा
हीरामल-जमाल
हूर मेनका-विश्वामित्र
भजन संग्रह
फुटकर रागनियाँ