पं॰ लखमीचन्द

हरियाणा के सूर्यकवि एवं हरियाणवी भाषा के शेक्सपीयर के रूप में विख्यात पं॰ श्री लखमीचन्द का जन्म 15 जुलाई 1903 (कुछ लोग उनका जन्म 1901 में भी मानते है ) में तत्कालीन रोहतक जिले के सोनीपत तहसील मे जमुना नदी के किनारे बसे जांटी नामक गाँव के साधरण गौड़ ब्रहाम्ह्ण परिवार मे हुआ।

श्री लखमीचंद के पिता पं॰ उमदीराम एक साधारण से किसान थे, जो अपनी थोड़ी सी जमीन पर कृषि करके समस्त परिवार का पालन–पोषण करते थे। पं. लख्मीचंद कतई अनपढ़ थे। वे अक्षरज्ञान के लिए किसी विद्यालय वगैरा में नहीं गए। उस समय उनके निवास क्षेत्र के आस-पास शिक्षा प्राप्ति के साधनों विद्यालयों आदि का अत्यंत अभाव था। पं. लख्मीचंद पर भी इसका प्रभाव पड़ना जरुरी था। अपने अनपढ़ होने का सबूत देते हुये पं. लख्मीचंद स्वयं अपनी रागनी में कहते है-

लखमीचंद नहीं पढ़ रया सै।
गुरु की दया तै दिल बढ़ रया सै।

जब लखमीचन्द कुछ बड़े हुए तो उन्हें विद्यालय न भेजकर गोचारण का काम दिया गया। गाने-बजाने के प्रति उनकी रुचि शुरू से ही थी। साथी ग्वालों के साथ घूमते–फिरते उनके मुख से सुने हुए टूटे–फूटे गीतों और रागनियों को गुनगुनाकर समय यापन करते थे। आयु बढने के साथ–साथ गीत-संगीत के प्रति उनकी आसक्ति इस कदर बढ़ गई की तात्कालीन लोककला साँग देखने के लिए कई-कई दिन बिना बताए घर से गायब रहते थे। एक बार उस समय के प्रसिद्ध साँगी पं॰ दीपचन्द का साँग देखने के लिए तथा दूसरी बार श्री निहाल सिंह का साँग देखने के लिए वे कई दिनों के लिए घर से गायब हो गए। तब बड़ी मुश्किल से उनके घरवाले उन्हें ढूंढकर घर लाए।
सौभाग्य से तात्कालीन सुप्रसिद्ध लोककवि मानसिंह (गाँव बसौधी निवासी) उनके गाँव में एक विवाहोत्सव पर भजन गाने के लिए आमंत्रित होकर पधारे। कवि मानसिंह की मधुर कंठ-माधुरी ने किशोरायु लखमीचन्द का कुछ ऐसा मन मोहित किया कि प्रथम भेंट मे ही उन्होने श्री मानसिंह को अपना सतगुरु बना लिया और अपनी संगीत-पिपासा को शांत करने के लिए गुरु के साथ चल दिए। लगभग एक साल तक पूरी निष्ठा एवं लगन के गुरु सेवा करके घर लौटे तो वे गायन एवं वादन कि कला के साथ-साथ एक लोक –कवि भी बन चुके थे। कहते हैं कि वैसे तो मानसिंह अपने जमाने के एक साधारण कवि गायक ही थे परंतु शिष्य का लगाव और श्रद्धा इतनी गहरी थी कि गुरु प्रभाव उसी प्रकार फलदायक हुआ जिस प्रकार सीधे-साधे सकुरात का अपने शिष्य प्लूटो पर या श्री रामानन्द का कबीर पर। पं॰ लखमीचन्द का संपूर्ण जीवन गुरुमय रहा।
गुरु मानसिंह ने लख्मीचंद को केवल धार्मिक भजन गाने को कहा था लेकिन पं. लख्मीचंद को कुछ और ही चीज की तलाश थी। इसीलिए पं. लखमीचंद ने अपने गुरु का साथ छोड़ कर सांग सीखना शुरू कर दिया। गायन कला के पश्चात अभिनय कला में महारत अर्जित करने हेतु ये कुछ दिनों मेहंदीपुर निवासी श्रीचंद साँगी की साँग मंडली ने भी रहे तथा बाद में विख्यात साँगी सोहन कुंडलवाला के बेड़े मे भी रहे परंतु अपना गुरु श्री मानसिंह को ही स्वीकार किया।
पं. लखमीचंद की आयु 11-12 वर्ष की रही होगी जब वे अपनी बुआ के घर गाँव खांडा (सोनीपत) में रहते थे। पं. दीपचंद वहां पर सांग करने के लिए आये हुये थे। पं. दीपचंद ने अपने हारमोनियम वादक पं. शंकर की सिफारिश पर उनको अपने बेड़े में शामिल कर लिया। लेकिन उदंड एवं क्रोधी स्वाभाव की वजह से पं. दीपचंद ने उनको अपने सांग बेड़े से बहार का रास्ता दिखा दिया। इस तरह से पं. लख्मीचंद के लिए सांगो के प्रेरणा स्त्रोत दीपचंद थे तो सांग की बारीकियां सिखाने वाले नेतराम शिष्य सोहनलाल थे। सोहनलाल के साथ पं. लखमीचंद ने करीब छः साल तक काम किया। सोहनलाल के सांगो में लखमीचंद बड़े रकाने का रोल करते थे। वहां पर भी ये ज्यादा समय तक नहीं टिक सके और उनसे अलग हो लघभग बीस साल कि आयु में पं॰ लखमीचन्द ने अपने गुरूभाई जयलाल उर्फ जैली के साथ मिलकर स्वतंत्र साँग मंडली बना ली और सारे हरियाणा में घूम–घूम कर अपने स्वयं रचित सांगो का प्रचार करने लगे। कुछ ही दिनों में सफलता और लोकप्रियता के सोपान चढ़ गए तथा सर्वाधिक लोकप्रिय साँगी, सूर्यकवि का दर्जा हासिल कर गए। प्रारम्भ में इनके साँग श्रंगार रस से परिपूरित थे जो बाद में सामजिकता, नैतिक मूल्यों एवं अध्यात्म का चरम एहसास लिए हुए हैं। इस प्रकार इन्होने समाज के हर वर्ग मे अपनी पैठ बनाई जिस कारण आज भी इनकी कई काव्य पंक्तियाँ हरियाणवी समाज में कहावतों कोई भांति प्रयोग कि जाती हैं।
श्री लखमीचन्द बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे केवल एक लोककवि या लोक कलाकार ही नहीं अपितु एक उदारचेता, दानी एवं लोक-कल्याण कि भावना से ओतप्रोत समाज-सुधारक थे। इनकी बुद्धिमत्ता एवं गायन कौशल को देखकर प्रसिद स्वतन्त्रता सेनानी एवं संस्कृत के विद्वान पं॰ टीकाराम (रोहतक निवासी ) ने इनको बहुत दिनों अपने पास ठहराया तथा संस्कृत भाषा एवं वेदों का अध्ययन कराया। श्री लखमीचन्द द्वारा रचित सांगों की संख्या बीस से अधिक है जिनमे प्रमुख हैं – नौटंकी, हूर मेनका, भक्त पूर्णमल, मीराबाई, सेठ ताराचंद, सत्यवान-सावित्री, शाही लकड़हारा, चीर पर्व (महाभारत ), कृष्ण-जन्म, राजा भोज–शरणदेय, नल-दमयंती, राजपूत चापसिंह, पद्मावत, भूप पुरंजय आदि। सांगो के अतिरिक्त इन्होने कुछ मुक्तक पदों एवं रागनियों की रचना भी की है जिनमे भक्ति भावना, साधु सेवा, गऊ सेवा, सामाजिकता, नैतिकता, देशप्रेम, मानवता, दानशीलता आदि भावों की सर्वोतम अभिव्यक्ति है। पं॰ जी की रचनाओं में संगीत एवं कला पक्ष सर्वाधिक रूप से मजबूत होता है। विभिन्न काव्य शिल्प रूप जैसे–अलंकार सौन्दर्य एवं विविधता, छंद –विधान की भिन्नता, भाषा में तुकबंदी एवं नाद सौन्दर्य, मुहावरों एवं लोकोक्तियों का कुशलता पूर्वक प्रयोग, छंदो की नयी चाल आदि शिल्प एवं भाव गुण इन्हे कविश्रेष्ठ, सूर्यकवि, कविशिरोमणि जैसी उपाधियाँ देने को सार्थक सिद्ध करते हैं।

हरियाणवी संस्कृति के पुरोधा और लोकनायक पं॰ लखमीचन्द का देहांत आश्विन सुदी एकादशी विक्रमी संवत 2002 तदनुसार 17 अक्टूबर 1945 में मात्र 44 वर्ष की आयु मे ही हो गया।

पं. लख्मीचंद द्वारा रचित सांग, किस्से व भजन

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